Jay Mahesh


 

 माहेश्वरी अभिवादन - जय महेश !


"जय महेश" माहेश्वरीयों में प्रयुक्त एक अभिवादन है. यह माहेश्वरीयों का एकमात्र औपचारिक अभिवादन है. 'जय महेश' का उपयोग लगभग सभी माहेश्वरीयों द्वारा एक-दूसरे का अभिवादन करने के लिए किया जाता है, क्योंकि माहेश्वरीयों के गुरुओं द्वारा यह अभिवादन माहेश्वरीयों को दिया गया था. माहेश्वरीयों में जयकारा "जय भवानी, जय महेश" कहकर लगाया जाता है. माहेश्वरीयों द्वारा पूरे विश्व में एक-दूसरे का अभिवादन करने के लिए "जय महेश" इस पद का उपयोग किया जाता है, भले ही उनकी भाषा जो भी हो. उदाहरणस्वरूप जैसे अमेरिका में रह रहे दो अंग्रेज़ी भाषी माहेश्वरी जो केवल अंग्रेज़ी ही बोलते हैं एक-दूसरे का अभिवादन करने के लिए "Jay Mahesh" बोल सकते हैं. सभी माहेश्वरी भाई और बहनों ने यह संकल्प करना है की हम एक दुसरे से मिलते समय, परिचय करते वक़्त और हर तरह के अभिवादन में जय महेश बोलेंगे जिससे हमेशा अपने उत्पत्तिकर्ता को, अपने आराध्य भगवान महेशजी को याद करते रहे....

Maheshwari Logo with name "Maheshwari" in Hindi


माहेश्वरी क्यों दुर हो रहे है अपनी संस्कृति से ? 
माहेश्वरीयों को 'जय महेश' कहने में क्यों आती है शर्म ?
चलिए और गोर से समझ लेते हैं, आप किसी माहेश्वरी के छोटे बच्चे को जय महेश बोलो वो आपको बदले में क्या जवाब देगा ?
फिर एक जैन के बच्चे को 'जय जिनेन्द्र' कहिये देखिये वो आपको क्या जवाब देता है...
आप खुद समझ जायेंगे की हमारी आने वाली पिढ़ी कहा जा रही है...
यह तो बस एक छोटासा उदाहरण है....... बाकी आप समझदार है...

 आप इतना तो कर ही सकते है...
- अपने घर में छोटे बच्चो को 'जय महेश' कहिये.
- उनसे भी जवाब में 'जय महेश' कहने की आदत डालिए.
- बच्चों को समय-समयपर मंदिर घुमाने लेकर जाइए.
- भगवान महेश (महादेव), पार्वती, गणेशजी की कहानीयां सुनाये....
- उन्हे तिलक लगाने की आदत डालें.
- घर से बाहर जाते समय सबको 'जय महेश' कहकर बाहर निकलिए.
- जब दो माहेश्वरी आपस में मिले तो अभिवादन में 'जय महेश' कहा कीजिये.
- घर में, परिवारवालों से, रिश्तेदारों से और समाजबंधुओं से मारवाड़ी
( राजस्थानी ) भाषा में ही बातचीत किया कीजिये.
- रोजाना या सोमवार को घरपर सपरिवार महेशजी की आरती करें.
- गलती होने पर - हे महेश ! बोलने की आदत डालें.
- मुसीबत आये तो "हे माँ भवानी रक्षा करो" या "महेशजी रक्षा करो" बोलिए.

...अब एक किस्सा सुनो..

पिछले संडे को मैने सोचा सबको "जय महेश" बोल के देखुं तो संडे को घुमने का मुड़ था सब दोस्त एक मॉल के बाहर मिले कुछ लड़कियां भी थी ...तो वहां मैने सोचा चलो सबको "जय महेश" बोलता हुं और सबके सामने जाते ही कहा जय महेश दोस्तो...
जैसा की होना था सब पेट पकड़-पकड़ कर हंसने लगे.

मैं भी कमर कस के गया था मैने वहां मेरे एक दोस्त इमरान को बुला लिया था. थोडी देर बाद जब वो आया तो मैने उसे अस-सलाम-वालेकुम कहा, उसने तुरंत वालेकुम-अस-सलाम कहा. सबकी शकल देखने लायक थी.. मैं बोला दम हो तो अब हंस के दिखाओ...

आप भी समझ गये होंगे.. की हमें क्या करना है...

The Flag Of The Maheshwarism / Maheshwaritva | Divy Dhwaj | माहेश्वरी समाज का ध्वज / झंडा - दिव्यध्वज | Divy Dhwaj - The Symbol Of Maheshwari Faith & Its Values | One of the main Maheshwari Symbol

The Divy Dhwaj (Hindi : दिव्य ध्वज), also known as the Maheshwari flag, holds great significance in Maheshwari Community as a sacred emblem that represents the Maheshwari faith and its values. The saffron swallowtail flag of the Maheshwari is called a "Divy Dhwaj". Divy means divine and Dhwaj or Dhwaja means symbol, standard or a mark of identity. The Divy Dhwaj is the Maheshwari flag and plays an important role in the Maheshwari Community. Flag "Divy Dhwah" is religious flag of Maheshwaris / Maheshwari community. Divy Dhwaja is the banner and insignia of the Maheshwari Community. The flag "Divy Dhwaj" is the symbol of Maheshwari culture and identity. Maheshwari Flag "Divya Dhwaj" is one of the main Maheshwari symbol. Maheshwari flag is mainly hoisted and used in Mahesh Navami programs, Mahesh Navami shobhayatra, religious programs of Maheshwari community etc.

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Design and construction details -

The Divy Dhwaja is a Maheshwari holy swallowtail flag made of cotton or silk cloth. It is a plain saffron-coloured swallowtail-shaped cloth. According to the flag code of Maheshwari, the Maheshwari flag has a ratio of two by three (Proportion : 2:3). The Mod to be printed or painted on the flag in dark blue (colour code : #002157, RGB 0-33-87, CMYK 100-75-0-60) or black. The size of the Mod is not specified in the Flag code.

माहेश्वरी ध्वज "दिव्यध्वज" की png फ़ाइल को Download करने के लिए कृपया इस Link पर क्लिक करें > Maheshwari Flag.png

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माहेश्वरी समाज का ध्वज / झंडा - दिव्यध्वज -

दिव्य ध्वज (English: Divy Dhwaj), जिसे माहेश्वरी ध्वज के रूप में भी जाना जाता है, माहेश्वरी समुदाय में एक पवित्र प्रतीक के रूप में बहुत महत्व रखता है जो माहेश्वरी आस्था और उसके मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है. माहेश्वरी समाज का ध्वज जिसे "दिव्यध्वज" कहते हैं, केसरिया (saffron) रंग के ध्वज पर गहरे नीले अथवा काले (black) रंग में माहेश्वरी निशान "मोड़" द्वारा सुशोभित ध्वज है. दिव्यध्वज माहेश्वरी समाज का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक ध्वज है. "दिव्य ध्वज" माहेश्वरीयों / माहेश्वरी समाज का धार्मिक झंडा / ध्वज है। यह माहेश्वरीयों के प्रमुख प्रतीकों में से एक है. यह माहेश्वरीयों की विशिष्ठ पहचान और माहेश्वरी संस्कृति का शास्वत सर्वमान्य प्रतीक है. हम न भूले की- “जो समाज अपनी विशिष्ठ पहचान और अपने प्राचीन गौरव को भुला देता हैं; वह अपनी एकता, सुरक्षा, सुख-समृद्धि के आधार स्तम्भ को खो देता हैं.” "दिव्य ध्वज" माहेश्वरी संस्कृति, अस्मिता एवं माहेश्वरी पहचान का प्रतीक है. माहेश्वरी संस्कृति, समृद्धि, विकास, अस्मिता, ज्ञान, सुसंस्कार और विशिष्टता का प्रतीक है यह दिव्यध्वज. माहेश्वरी समाज की विशिष्ठ पहचान और गौरव का प्रतिक है दिव्यध्वज.

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रंग-रूप (डिझाइन) -

माहेश्वरी ध्वज जिसे "दिव्यध्वज" कहते है, केसरिया (भगवा) रंग के कॉटन अथवा सिल्क के कपडे से बना होता है; यह दो त्रिकोण के आकारवाला (swallowtail shaped) होता है. भगवा रंग उगते हुए सूर्य का रंग है; उगते सूर्य के रंग को ज्ञान, कर्म, वीरता, त्याग का प्रतीक माना गया और इसीलिए हमारे पूर्वजों ने इसे प्रेरणा स्वरूप माना. भगवा रंग अधर्म के अंधकार को दूर करके धर्म का प्रकाश फैलाने का संदेश देता है. यह हमें आलस्य और निद्रा को त्यागकर उठ खड़े होने, कर्म करने और अपने कर्तव्य में लग जाने की भी प्रेरणा देता है. यह हमें यह भी सिखाता है कि जिस प्रकार सूर्य स्वयं दिनभर जलकर सबको प्रकाश देता है, इसी प्रकार हम भी निस्वार्थ भाव से सभी प्राणियों की नित्य और अखंड सेवा करें.

दिव्यध्वज की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात ३:२ (लम्बाई:चौड़ाई) है. केसरिया (भगवा) रंग के कॉटन अथवा सिल्क के कपडे पर माहेश्वरी निशान 'मोड़' अंकित (Printed or Painted) होता है; मोड़ निशान का आकार (साइज) निर्धारित नहीं है. माहेश्वरी ध्वज अपने आप में ही माहेश्वरी समाज के सिद्धांतों और निति को दर्शाता हुआ दिखाई देता है. सत्य, प्रेम, न्याय पर आधारित आत्मरक्षा, शांति, सुसंस्कार, समृद्धि और सदैव विकास की ओर अग्रेसर.

ई.स.पूर्व 3133 में जब भगवान महेशजी और माता पार्वती के कृपा से 'माहेश्वरी' समाज की उत्पत्ति हुई थी (देखें > माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास) तब जो माहेश्वरियों के गुरु थे उन्होंने भगवान महेशजी और माता पार्वती की प्रेरणा से माहेश्वरी निशान (प्रतीकचिन्ह/Symbol) मोड़ और दिव्यध्वज का सृजन किया था. गुरुओं का मानना था की यह ध्वज सम्पूर्ण माहेश्वरियों को एकत्रित रखता है, आपस में एक-दुसरेसे जोड़े रखता है. मोड़ (माहेश्वरी सिम्बॉल) और दिव्यध्वज माहेश्वरीयों की आन-बाण-शान का प्रतीक है.

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माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस - महेश नवमी पर
माहेश्वरी ध्वज "दिव्य-ध्वज" के साथ बाइक रैली

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Maheshacharya | Supreme Religious Guru Of Maheshwari Community | Peethadhipati - Maheshwari Akhada (Maheshwari Gurupeeth)

Maheshacharya (महेशाचार्य) is the supreme/highest Guru post of Maheshwari community & only the Peethadhipati of "Divyashakti Yogpeeth Akhara (Maheshwari Akhada)" is entitled to be decorated with the title of "Maheshacharya".


Maheshacharya (Sanskrit: महेशाचार्य) is a religious title used for the president (peethadhipati) of “Divyashakti Yogpeeth Akhada" in the tradition of Maheshwaritva / Maheshwarism in Maheshwari community (maheshwari Samaj). "Divyashakti Yogpeeth Akhada (which is known as Maheshwari Akhada, is famous)" is the highest/supreme Gurupeeth of Maheshwari community and Maheshacharya is the supreme/highest Guru post of Maheshwari community. The word "Maheshacharya" is composed of two parts, Mahesha and Acharya. Acharya is a Sanskrit word meaning "teacher", so Maheshacharya means "teacher", who teaches the path shown by Lord Mahesha.

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According to the origin story of Maheshwari dynasty, Lord Maheshji made these six (6) sages Maharishi Parashar, Saraswat, Gwala, Gautam, Shringi, Dadhich the gurus of Maheshwaris and entrusted them with the responsibility of guiding the Maheshwaris/Maheshwari community to follow the path of religion (For the origin story of Maheshwari dynasty, click/touch here > Maheshwari - Origin and brief History). Later, these Gurus also gave the post of Maheshwari Guru to Rishi Bhardwaj due to which the number of Maheshwari Gurus became seven (7) who are called Saptarishi among Maheshwaris. He came to be known as Gurumaharaj. These Gurus had established a 'Gurupeeth' which was called "Maheshwari Gurupeeth" so that the work of management and guidance of Maheshwari society went smoothly. The head of the Gurupeeth was decorated with the title of “Maheshacharya”. Maheshacharya- This is the official highest/supreme guru post of Maheshwari community.

Only the President (Peethadhipati) of “Divyashakti Yogpeeth Akhada” (which is known as Maheshwari Akhara, is famous)" is the highest/supreme Gurupeeth of Maheshwari community, is entitled/officially authorized to be adorned/decorated with the title of “Maheshacharya”. Presently Yogi Premsukhanand Maheshwari is the Peethadhipati of "Divyashakti Yogpeeth Akhara" & is Maheshacharya. Maharishi Parashar is the first Peethadhipati of Maheshwari Gurupeeth and hence Maharishi Parashar is "Adi Maheshacharya".

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However, according to tradition and belief, the heritage of Maheshwari Gurupeeth is more than five thousand years old. It was founded as ‘Maheshwari Gurupeeth’ by Adi Maheshacharya Maharshi Parashar during his lifetime, together with six (6) Rishi- Saraswat, Gwala, Gautam, Shringi, Dadhich and Bhardwaj. However, this tradition restored formally by Yogi Premsukhanand Maheshwari an official name "Divyashakti Yogapeeth Akhada" in the year 2008. At the time of official establishment of this supreme Gurupeeth of Maheshwari community, its name was registered as "Divyashakti Yogpeeth Akhada", but it is popularly known as Maheshwari Akhada, is famous.

Maheshwari Akhada is Maheshwari community's top/supreme religious-spiritual management organization. The main task of the akhada is to defend religion, culture of Maheshwari. Maheshwari Akhada's main objective is to organise, consolidate the Maheshwari society and to protect the Maheshwari culture.

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पुस्तक (Book) : माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास | लेखक - प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी | Published on Mahesh Navami - 2014 | Maheshwari Utpatti Evam Sankshipt Itihas | Author - Premsukhanand Maheshwari

यह पुस्तक कई माहेश्वरीयों की आंखें खोलने वाली पुस्तक (Book) है, फिर वो माहेश्वरी भारत में रहनेवाले हों या विदेशों में !


The book, Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas is an eye opener for many Maheshwaris, whether they are living in India or abroad. This book provides a broad view of Maheshwari history, philosophy and culture, as viewed from the eyes of a Maheshwari fighting to protect the Maheshwari community and Maheshwari culture. The book is widely considered one of the finest modern works on Maheshwari history. The book "Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas" is written by Yogi Premsukhanand Maheshwari, the Peethadhipati and Maheshacharya of "Divyashakti Yogpeeth Akhara (which is known as Maheshwari Akhada, is famous)".

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Yogi Premsukhanand Maheshwari is the researcher, author and historian of Maheshwari community's history. Peethadhipati of Maheshwari Akhara, Maheshacharya, Yogi Premsukhanand Maheshwari is one of the most renowned historians, researchers and authors in the Maheshwari community. He is best known for his outstanding contributions to research on origin of Maheshwari community and ancient Maheshwari history. Premsukhanand Maheshwari is not only a researcher, writer/author and historian of the history of Maheshwari community but is also known as the "patron" of Maheshwari community and Maheshwari culture as the Peethadhipati of Maheshwari Akhara (Maheshwari Akhada) and the Maheshacharya.

Every Maheshwari must know about when did his community originate? How did it happen? Who did it? Why was it done? What is the history of our Maheshwari community? Only if he is aware of this, he will be able to know what a proud and respected community he is a part of, how glorious is the history of his community. To know this, the book "Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas" written by Yogi Premsukhanand Maheshwari helps you a lot. The book "Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas (Maheshwari - Origin and Brief History) written by Premsukhanand Maheshwari has been published on Mahesh Navami - 2014. After reading this book you will definitely feel joy, happiness and pride.


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पुस्तक (Book) : माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास, लेखक (Author) - प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी


यह पुस्तक कई माहेश्वरीयों की आंखें खोलने वाली पुस्तक (Book) है, फिर वो माहेश्वरी भारत में रहनेवाले हों या विदेशों में यह पुस्तक माहेश्वरी इतिहास, दर्शन और संस्कृति का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जैसा कि माहेश्वरी समुदाय (माहेश्वरी समाज) और माहेश्वरी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ने वाले एक माहेश्वरी की नजर से देखा गया है। इस पुस्तक को व्यापक रूप से माहेश्वरी इतिहास पर बेहतरीन आधुनिक कार्यों में से एक माना जाता है। माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास पुस्तक "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है)" के पीठाधिपति एवं महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखी गई है।

योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी (पीठाधिपति, माहेश्वरी अखाड़ा) माहेश्वरी समाज के इतिहास के शोधकर्ता, लेखक एवं इतिहासकार हैं। महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज माहेश्वरी समाज के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और लेखकों में से एक हैं। उन्हें माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति और प्राचीन माहेश्वरी इतिहास पर शोध में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए जाना जाता है। प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ना केवल माहेश्वरी समाज के इतिहास के एक शोधकर्ता, लेखक और इतिहासकार हैं; बल्कि माहेश्वरी अखाड़े के पीठाधिपति और महेशाचार्य के रूप में माहेश्वरी समाज और माहेश्वरी संस्कृति के "संरक्षक" के रूप में भी जाने जाते हैं।

हरएक माहेश्वरी को इस बारे में जानकारी होनी ही चाहिए की अपने समाज की उत्पत्ति कब हुई? कैसे हुई? किसने की? क्यों की? अपने समाज का इतिहास क्या है? इसकी जानकारी होगी तभी तो वह जान पायेगा की वह कितने गौरवशाली तथा सम्मानित समाज का अंग है, उसके समाज का इतिहास कितना गौरवपूर्ण और वैभवशाली है। इसे जानने के लिए योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित यह पुस्तक "माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" आपकी बहुत मदत करती है प्रेमसुखानंद माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक, "माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" महेश नवमी - 2014 पर प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक को पढ़कर आपको जरूर आनंद, ख़ुशी और गर्व की अनुभूति होगी।


"माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" पुस्तक के कुछ मुख्य अंशों को पढ़ने के लिए इस Link पर click कीजिये > The Book, Maheshwari - Origin And Brief History | Author - Yogi Premsukhanand Maheshwari | माहेश्वरी - उत्पत्ति और संक्षिप्त इतिहास, योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक

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The Book, Maheshwari Origin And Brief History | Author - Yogi Premsukhanand Maheshwari | माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास, योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक

The book "Maheshwari Origin and Brief History" is an eye opener for many Maheshwaris living in India and abroad. This book provides a broad view of Maheshwari history, philosophy and culture, as viewed from the eyes of a Maheshwari fighting to protect the Maheshwari community and Maheshwari culture. The book is widely considered one of the finest modern works on Maheshwari history. The book "Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas (English: Maheshwari - Origin and Brief History)" is written by Yogi Premsukhanand Maheshwari, the Peethadhipati and Maheshacharya of "Divyashakti Yogpeeth Akhara (which is known as Maheshwari Akhada, is famous)".

Every Maheshwari must know about when did his community originate? How did it happen? Who did it? Why was it done? What is the history of our Maheshwari community? Only if he is aware of this, he will be able to know what a proud and respected community he is a part of, how glorious is the history of his community. To know this, the book "Maheshwari Utpatti evam Sankshipt Itihas" written by Yogi Premsukhanand Maheshwari helps you a lot. Some excerpts from this book have been given here, after reading it you will definitely feel joy, happiness and pride.

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"माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" यह पुस्तक भारत और विदेशों में रहनेवाले कई माहेश्वरीयों की आंखें खोलने वाली पुस्तक (Book) है। यह पुस्तक माहेश्वरी इतिहास, दर्शन और संस्कृति का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जैसा कि माहेश्वरी समुदाय (माहेश्वरी समाज) और माहेश्वरी संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ने वाले एक माहेश्वरी की नजर से देखा गया है। इस पुस्तक को व्यापक रूप से माहेश्वरी इतिहास पर बेहतरीन आधुनिक कार्यों में से एक माना जाता है। "माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" पुस्तक "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है)" के पीठाधिपति एवं महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखी गई है।

हरएक माहेश्वरी को इस बारे में जानकारी होनी ही चाहिए की अपने समाज की उत्पत्ति कब हुई? कैसे हुई? किसने की? क्यों की? अपने समाज का इतिहास क्या है? इसकी जानकारी होगी तभी तो वह जान पायेगा की वह कितने गौरवशाली तथा सम्मानित समाज का अंग है, उसके समाज का इतिहास कितना गौरवपूर्ण और वैभवशाली है। इसे जानने के लिए योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित यह पुस्तक "माहेश्वरी उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास" आपकी बहुत मदत करती है। इसी पुस्तक के कुछ अंशों को यहाँ पर दिया है, इसे पढ़कर आपको जरूर आनंद, ख़ुशी और गर्व की अनुभूति होगी।

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माहेश्वरी उत्पत्ति एवं इतिहास


खंडेलपुर (इसे खंडेलानगर और खंडिल्ल के नाम से भी उल्लेखित किया जाता है) नामक राज्य में सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा खड्गलसेन राज्य करता था। इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांती से रहती थी। राजा धर्मावतार और प्रजाप्रेमी था, परन्तु राजा का कोई पुत्र नहीं था। खड्गलसेन इस बात को लेकर चिंतित रहता था कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। खड्गलसेन की चिंता को जानकर मत्स्यराज ने परामर्श दिया कि आप पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं, इससे पुत्र की प्राप्ति होगी। राजा खड्गलसेन ने मंत्रियों से मंत्रणा कर के धोसीगिरी से ऋषियों को ससम्मान आमंत्रित कर पुत्रेस्ठी यज्ञ कराया। पुत्रेष्टि यज्ञ के विधिपूर्वक पूर्ण होने पर यज्ञ से प्राप्त हवि को राजा खड्गलसेन और महारानी को प्रसादस्वरूप में भक्षण करने के लिए देते हुए ऋषियों ने आशीवाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा की तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना, अन्यथा आपकी अकाल मृत्यु होगी। कुछ समयोपरांत महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। राजा ने पुत्र जन्म उत्सव बहुत ही हर्ष उल्लास से मनाया, उसका नाम सुजानसेन रखा। यथासमय उसकी शिक्षा प्रारम्भ की गई। थोड़े ही समय में वह राजकाज विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा। तथासमय सुजानसेन का विवाह चन्द्रावती के साथ हुवा। दैवयोग से एक जैन मुनि खंडेलपुर आए। कुवर सुजान उनसे बहुत प्रभावित हुवा। उसने अनेको जैन मंदिर बनवाएं और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया। जैनमत के प्रचार-प्रसार की धुन में वह भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी भगवती को माननेवाले, इनकी आराधना-उपासना करनेवाले आम प्रजाजनों को ही नहीं बल्कि ऋषि-मुनियों को भी प्रताड़ित करने लगा, उनपर अत्याचार करने लगा।

ऋषियों द्वारा कही बात के कारन सुजानसेन को उत्तर दिशा में जाने नहीं दिया जाता था लेकिन एक दिन राजकुवर सुजानसेन 72 उमरावो को लेकर हठपूर्वक जंगल में उत्तर दिशा की और ही गया उत्तर दिशामें सूर्य कुंड के पास जाकर देखा की वहाँ महर्षि पराशर की अगुवाई में सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी और दाधीच ऋषि यज्ञ कर रहे है, वेद ध्वनि बोल रहे है, यह देख वह आगबबुला हो गया और क्रोधित होकर बोला इस दिशा में ऋषि-मुनि शिव की भक्ति करते है, यज्ञ करते है इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे। उसने क्रोध में आकर उमरावों को आदेश दिया की इसी समय यज्ञ का विध्वंस कर दो, यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो और ऋषि-मुनियों के आश्रम नष्ट कर दो राजकुमार की आज्ञा पालन के लिए आगे बढे उमरावों को देखकर ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब निष्प्राण बन जाओ श्राप देते ही राजकुवर सहित 72 उमराव निष्प्राण, पत्थरवत बन गए जब यह समाचार राजा खड्गलसेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए राजा के साथ उनकी 8 रानिया सती हुई

राजकुवर की कुवरानी चन्द्रावती 72 उमरावों की पत्नियों के सहित रुदन करती हुई उन्ही ऋषियो की शरण में गई जिन्होंने इनके पतियों को श्राप दिया था। ये उन ऋषियो के चरणों में गिर पड़ी और क्षमायाचना करते हुए श्राप वापस लेने की विनती की तब ऋषियो ने उषाप दिया की- जब देवी पार्वती के कहने पर भगवान महेश्वर इनमें प्राणशक्ति प्रवाहित करेंगे तब ये पुनः जीवित व शुद्ध बुद्धि हो जायेंगे। महेश-पार्वती के शीघ्र प्रसन्नता का उपाय पूछने पर ऋषियों ने कहा की- यहाँ निकट ही एक गुफा है, वहाँ जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र "ॐ नमो महेश्वराय" का जाप करो। राजकुवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और मंत्र तपस्या में लीन हो गई। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महेशजी देवी पार्वती के साथ वहा आये। पार्वती ने इन जडत्व मूर्तियों को देखा और अपनी अंतर्दृष्टि से इसके बारे में जान लिया। महेश-पार्वती ने मंत्रजाप में लीन राजकुवरानी एवं सभी उमराओं की स्त्रियों के सम्मुख आकर कहा की- तुम्हारी तपस्या देखकर हम अति प्रसन्न है और तुम्हें वरदान देने के लिए आयें हैं, वर मांगो। इस पर राजकुवरानी ने देवी पार्वती से वर मांगा की- हम सभी के पति ऋषियों के श्राप से निष्प्राण हो गए है अतः आप भगवान महेशजी कहकर इनका श्रापमोचन करवायें। पार्वती ने 'तथास्तु' कहा और भगवान महेशजी से प्रार्थना की और फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन और सभी 72 उमरावों में प्राणशक्ति प्रवाहित करके उन्हें चेतन (जीवित) कर दिया।

चेतन अवस्था में आते ही सभीने महेश-पार्वती का वंदन किया और अपने अपराध पर क्षमा याचना की। इसपर भगवान महेश ने कहा की- अपने क्षत्रियत्व के मद में तुमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। तुमसे यज्ञ में बाधा डालने का पाप हुवा है, इसके प्रायश्चित के लिए अपने-अपने हथियारों को लेकर सूर्यकुंड में स्नान करो। ऐसा करते ही उन सभी के हथियार पानी में गल गए। स्नान करने के उपरान्त सभी भगवान महेश-पार्वती की जयजयकार करने लगे। फिर भगवान महेशजी ने कहा की- सूर्यकुंड में स्नान करने से तुम्हारे सभी पापों का प्रायश्चित हो गया है तथा तुम्हारा क्षत्रितत्व एवं पूर्व कर्म भी नष्ट हो गये है। यह तुम्हारा नया जीवन है इसलिए अब तुम्हारा नया वंश चलेगा। तुम्हारे वंशपर हमारी छाप रहेगी। देवी महेश्वरी (पार्वती) के द्वारा तुम्हारी पत्नियों को दिए वरदान के कारन तुम्हे नया जीवन मिला है इसलिए तुम्हे 'माहेश्वरी' के नाम से जाना जायेगा तुम हमारी (महेश-पार्वती) संतान की तरह माने जाओगे। तुम दिव्य गुणों को धारण करनेवाले होंगे। द्यूत, मद्यपान और परस्त्रीगमन इन त्रिदोषों से मुक्त होंगे। अब तुम्हारे लिए युद्धकर्म (जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए योद्धा/सैनिक का कार्य करना) निषिद्ध (वर्जित) है। अब तुम अपने परिवार के जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए वाणिज्य कर्म करोगे, तुम इसमें खूब फुलोगे-फलोगे। जगत में धन-सम्पदा के धनि के रूप में तुम्हारी पहचान होगी। धनि और दानी के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी। श्रेष्ठ कहलावोगे (*आगे चलकर श्रेष्ठ शब्द का अपभ्रंश होकर 'सेठ' कहा जाने लगा)। तुम जो धन-अन्न-धान्य दान करेंगे उसे माताभाग (माता का भाग) कहा जायेगा, इससे तुम्हे बरकत रहेगी।

अब राजकुवर और उमरावों में स्त्रियों (पत्नियोंको) को स्वीकार करने को लेकर असमंजस दिखाई दिया। उन्होंने कहा की- हमारा नया जन्म हुवा है, हम तो “माहेश्वरी’’ बन गए है पर ये अभी क्षत्रानिया है। हम इन्हें कैसे स्वीकार करे। तब माता पार्वती ने कहा तुम सभी स्त्री-पुरुष हमारी (महेश-पार्वती) चार बार परिक्रमा करो, जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जायेगा। इसपर राजकुवरानी ने पार्वती से कहा की- माते, पहले तो हमारे पति क्षत्रिय थे, हथियारबन्द थे तो हमारी और हमारे मान की रक्षा करते थे अब हमारी और हमारे मान की रक्षा ये कैसे करेंगे तब पार्वती ने सभी को दिव्य कट्यार (कटार) दी और कहाँ की अब तुम्हारा कर्म युद्ध करना नहीं बल्कि वाणिज्य कार्य (व्यापार-उद्यम) करना है लेकिन अपने स्त्रियों की और मान की रक्षा के लिए सदैव 'कट्यार' (कटार) को धारण करेंगे। मै शक्ति स्वयं इसमे बिराजमान रहूंगी। तब सब ने महेश-पार्वति की चार बार परिक्रमा की तो जो जिसकी पत्नी है उनका अपनेआप गठबंधन हो गया (एक-दो जगह पर, 13 स्त्रियों ने भी कट्यार धारण करके गठबंधन की परिक्रमा करने का उल्लेख मिलता है)।

इसके बाद सभी ने सपत्नीक महेश-पार्वती को प्रणाम किया। अपने नए जीवन के प्रति चिंतित, आशंकित माहेश्वरीयों को देखकर देवी महेश्वरी उन्हें भयमुक्त करने के लिए यह कहकर की- “सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्।” ‘समस्त जगत मैं ही हूँ। इस सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी मैं थीं। मैं ही इस सृष्टि का आदि स्रोत हूँ। मैं सनातन हूँ। मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे किये से ही सबकुछ होता है इसलिए तुम सब अपने मन को आशंकाओं से मुक्त कर दो’ ऐसा कहकर देवी महेश्वरी (पार्वती) नें सभी को दिव्यदृष्टि दी और अपने आदिशक्ति स्वरुप का दर्शन कराया। दिखाया की शिव ही शक्ति है और शक्ति ही शिव है। ‘शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरेशिवः।’ शक्ति शिव में निहित है, शिव शक्ति में निहित हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव और शक्ति अर्थात महाकाल और महाकाली, महेश्वर और महेश्वरी, महादेव और महादेवी, महेश और पार्वती तो एक ही है, जो दो अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करते है। महेश-पार्वती के सामरस्य से ही यह सृष्टि संभव हुई। आदिशक्ति ने पलभर में अगणित (जिसको गिनना असंभव हो) ब्रह्मांडों का दर्शन करा दिया जिसमें वह समस्त दिखा जो मनुष्य नें देखा या सुना हुवा है और वह भी दिखा जिसे मानव ने ना सुना है, ना देखा है, न ही कभी देख पाएगा और ना उनका वर्णन ही कर पाएगा। तत्पश्चात अर्धनरनारीश्वर स्वरुप में शरीर के आधे भाग में महेश (शिव) और आधे भाग में पार्वती (शक्ति) का रूप दिखाकर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति (पालन), परिवर्तन और लय (संहार); महेश (शिव) एवं पार्वती (शक्ति) अर्थात (संकल्पशक्ति और क्रियाशक्ति) के अधीन होनेका बोध कराया। चामुण्डा स्वरुप का दर्शन कराया जिसमें दिखाया की- “महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी” देवी महेश्वरी की ही तीन शक्तियां है जो बलशक्ति, ज्ञानशक्ति और ऐश्वर्यशक्ति (धनशक्ति) के रूप में अर्थात इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में कार्य करती है जिसके फलस्वरूप सृष्टि के सञ्चालन का कार्य संपन्न हो रहा है। महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी इन्ही त्रयीशक्तियों का सम्मिलित/एकत्रित रूप है माँ चामुण्डा जो स्वयं आदिशक्ति देवी महेश्वरी ही है। आगे महाकाली के अंशशक्तियों नवदुर्गा और दसमहाविद्या तथा महालक्ष्मी की अंशशक्तियों अष्टलक्ष्मियों का दर्शन कराया। अंततः यह सभी शक्तियां मूल शक्ति (आदिशक्ति) देवी महेश्वरी में समाहित हो गई। तब आश्चर्यचकित, रोमांचित, भावविभोर होकर सभी ने सिर नवाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा की- हे माते, आप ही जगतजननी हो, जगतमाता हो। आपकी महिमा अनंत है। आपके इस आदिशक्ति रूप को देखकर हमारा मन सभी चिन्ताओं, आशंकाओं से मुक्त हो गया है। हम अपने भीतर दिव्य चेतना, दिव्य ऊर्जा और प्रसन्नता का अनुभव कर रहे है। हे माते, आपकी जय हो। हमपर आपकी कृपा निरंतर बरसती रहे। देवी ने कहा, मेरा जो आदिशक्ति रूप तुमने देखा है उसे देख पाना अत्यंत दुर्लभ है। केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरे इस आदिशक्ति रूप का साक्षात दर्शन किया जा सकता है। जो मनुष्य अपने सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को, मनोकामनाओं से मुक्त रहकर केवल मेरे प्रति समर्पित करता है, मेरे भक्ति में स्थित रहता है वह मनुष्य निश्चित रूप से मेरी कृपा को प्राप्त करता है। वह मनुष्य निश्चित रूप से परम आनंद को, परम सुख को प्राप्त करता है।

फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन को कहा की अब तुम इनकी वंशावली रखने का कार्य करोगे, तुम्हे 'जागा' कहा जायेगा। तुम माहेश्वरीयों के वंश की जानकारी रखोंगे, विवाह-संबन्ध जोड़ने में मदत करोगे और ये हर समय, यथा शक्ति द्रव्य देकर तुम्हारी मदत करेंगे। तत्पश्चात ऋषियों ने महेश-पार्वती को हाथ जोड़कर वंदन किया और भगवान महेशजी से कहा की- प्रभु इन्होने हमारे यज्ञ का विध्वंस किया और आपने इन्हें श्राप मोचन (श्राप से मुक्त) कर दिया। इस पर भगवान महेशजी ने ऋषियो से कहा- आपको इनका (माहेश्वरीयों का) गुरुपद देता हूँ। आजसे आप माहेश्वरीयोंके गुरु हो। आपको 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जायेगा। आपका दायित्व है की आप इन सबको धर्म के मार्गपर चलनेका मार्गदर्शन करते रहेंगे। भगवान महेशजी ने सभी माहेश्वरीयों को उपदेश दिया कि आज से यह ऋषि तुम्हारे गुरु है। आप इनके द्वारा अनुशाषित होंगे। एक बार देवी पार्वती के जिज्ञासापूर्ण अनुरोध पर मैंने पार्वती को जो बताया था वह पुनः तुम्हे बताता हूँ-

गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः l गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ll
अर्थात "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ। गुरु और गुरुतत्व को बताते हुए महेशजी ने कहा की, गुरु मात्र कोई व्यक्ति नहीं है अपितु गुरुत्व (गुरु-तत्व) तो व्यक्ति के ज्ञान में समाहित है। उसे वैभव, ऐश्वर्य, सौंदर्य अथवा आयु से नापा नहीं जा सकता। गुरु अंगुली पकड़कर नहीं चलाता, गुरु अपने ज्ञान से शिष्य का मार्ग प्रकाशित करता है। चलना शिष्य को ही पड़ता है। जैसे मै और पार्वती अभिन्न है वैसे ही मै और गुरुत्व (गुरु-तत्व) अभिन्न है। इस तरह से गुरु व गुरुतत्व के बारे में बताने के पश्चात महेश भगवान पार्वतीजी सहित वहां से अंतर्ध्यान हो गये।

उमरावों के चेतन होने के शुभ समाचार को जानकर उनके सन्तानादि परिजन भी वहां पर आ गए पूरा वृतांत सुनने के बाद ऋषियों के कहने पर उन सभी ने सूर्यकुंड में स्नान किया ऋषियों ने,
“स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु, विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु l
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु, वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु ll”
(अर्थ - आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें। विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें। ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति बनी रहे। आपका वंश सदैव तेजस्वी एवं दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे।) इस मंत्र का उच्चारण करते हुए सभी के हाथों में रक्षासूत्र (कलावा) बांधा और उज्वल भविष्य और कल्याण की कामना करते हुए आशीर्वाद दिए।

आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll

अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई (यह दिन युधिष्टिर संवत 9 जेष्ट शुक्ल नवमी का दिन था तभी से माहेश्वरी समाज 'जेष्ट शुक्ल नवमी' को “महेश नवमी’’ के नाम से, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन (माहेश्वरी स्थापना दिन) के रूप में बहुत धूम धाम से मनाता है। “महेश नवमी” माहेश्वरी समाज का सबसे बड़ा त्योंहार है, सबसे बड़ा पर्व है)

 

(1.2) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति से सम्बंधित सन्दर्भ एवं तत्थ्य


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1) वर्तमान राजस्थान के लिए पहले किसी एक नाम का प्रयोग नहीं मिलता है। इसके भिन्न-भिन्न क्षेत्र भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते थे ऐसा महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है। वर्तमान अलवर एवं जयपुर तथा कुछ हिस्सा भरतपुर का भी इसमें शामिल है, 'मत्स्य राज्य' कहलाता था। मत्स्य राज्य की राजधानी विराटनगर थी जिसको इस समय बैराठ कहते है। यह वही विराट नगर है जहाँ महाभारत काल में पांड्वो ने अपना अज्ञातवास व्यतीत किया था। माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में आया 'मत्स्यराज' का उल्लेख मत्स के राजा के लिए किया गया है।

2) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में खण्डेलपुर राज्य का उल्लेख आता है महाभारतकाल में लगभग 260 जनपद (राज्य) होने का उल्लेख भारत के प्राचीन इतिहास में मिलता है इनमें से जो बड़े और मुख्य जनपद थे इन्हे महा-जनपद कहा जाता था कुरु, मत्स्य, गांधार आदि 16 महा-जनपदों का उल्लेख महाभारत में मिलता है इनके अलावा जो छोटे जनपद थे, उनमें से कुछ जनपद तो 5 गावों के भी थे तो कुछेक जनपद मात्र एक गांव के भी होने की बात कही गयी है इससे प्रतीत होता है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित 'खण्डेलपुर' जनपद भी इन जनपदों में से एक रहा होगा

राजस्थान के प्राचीन इतिहास की यह जानकारी की- ‘खंडेला’ राजस्थान स्थित एक प्राचीन स्थान है जो सीकर से 28 मील पर स्थित है, इसका प्राचीन नाम खंडिल्ल और खंडेलपुर था। यह जानकारी खण्डेलपुर के प्राचीनता की और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है

खंडेला से तीसरी शती ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है और यहाँ अनेक प्राचीन मंदिरों के ध्वंसावशेष हैं। “खंडेला सातवीं शती ई. तक शैवमत (शिव अर्थात भगवान महेश को माननेवाले जनसमूह) का एक मुख्य केंद्र था” , यह जानकारी खण्डेलपुर और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है और यंहा पर सातवीं शती तक शिव (महेश) को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है।

खंडेला में आदित्यनाग नामक राजा ने 644 ई. में अर्धनारीश्वर का एक मंदिर बनवाया था। इस मंदिर के ध्वंसावशेष से एक नया मंदिर बना है जो वर्तमान समय में खंडलेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। 644 ई. में इस क्षेत्र में शिवलिंग या शिवपिंड की बजाय मूर्ति के रूप में अर्धनारीश्वर का मंदिर बनवाया जाना इस बात की पुष्टि करता है की उस समय इस क्षेत्र में ‘शिव’ की मूर्ति स्वरुप में पूजा करनेवालों का प्राबल्य था। मान्यता के अनुसार माहेश्वरी समाज में माहेश्वरी उत्पत्ति के समय से ही महेश-पार्वती को मूर्ति स्वरुप में पूजने की परंपरा है। तो यह बात खंडेला में महेश को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है। भगवान शिव की महाभारतकाल में भी मूर्ति के स्वरुप में पूजा होती थी। इसका एक प्रमाण यह है की- हिमाचल के करसोगा घाटी के एक छोटे से ममेल नामक गांव में भी लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक पुराना महाभारत-कालीन भगवान महादेव-पार्वती का एक मंदिर है। स्थानीय मान्यताओं के मुताबिक़ पांडवों ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय इसी स्थान पर बिताया था। यह विश्व का ऐसा सबसे प्राचीन मंदिर हैं, जहाँ पर भगवान महेश्वर और माता गौरा पार्वती की युगल मूर्ति स्थापित हैं, जिनके बारे में जनश्रुति है कि इनकी स्थापना भी पांडव काल में स्वयं पांचों पांडव भाइयों के द्वारा ही की गई थी।

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महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह (मूर्ति) रूप में ही रह गए, अत: उनके विग्रहों (मूर्तियों) की पूजा की जाती है। तथ्य बताते है की कलियुग के प्रारम्भ होने तक शिवाय 'शिव' के किसी भी अन्य देवी-देवता के विग्रह (मूर्ति) की ना स्थापना की जाती थी और ना ही पूजा। शिवलिंग के स्थापना के तथा देवी के शक्तिपीठों के तथ्य जरूर मिलते है। जब माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई तब माहेश्वरी जिस खण्डेलपुर में रहते थे उसी खण्डेलपुर में तीसरी शती ई. में स्थापित शिव की शारीरिक स्वरुपवाली मूर्ति जो की 'अर्धनारीश्वर' की थी का मिलना इस बात को स्पष्ट करता है की माहेश्वरीयों में महेश-पार्वती की शारीरिक स्वरुपवाली मूर्ति की पूजा की जाती थी। संभवतः माहेश्वरी उत्पत्ति के समय पार्वती के दिखाए आदिशक्ति स्वरुप को ही ध्यान में रखकर यह मूर्ति बनाई गई हो। इसी खण्डेला में, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के कुछ ही समय उपरांत स्थापित देवी चामुण्डा का मंदिर भी है। महाभारत-कालीन यह मंदिर आज भी विद्यमान है और माहेश्वरीयों की माँ चामुंडा (देवी महेश्वरी)  के प्रति भक्तिगाथा को बताते हुए अतीत की यादो को ताज़ा करता है।

3) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में वर्णित खंडेला गांव पुरातन समय से लेकर अभीतक गोटे के काम के लिए जाना जाता हैं। भले ही आज के समय में माहेश्वरी समाज की स्त्रियों के वस्त्रों-परिधानों पर गोटे के काम का चलन कम हुवा है लेकिन पुराने समय में स्त्रियों के वस्त्रों-परिधानों पर परंपरागत रूप से गोटे के काम का काफी प्रचलन रहा है। कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बताया है की जब वह कपड़ा पुराना हो जाता था तो उस पर से गोटा निकालकर जलाया जाता था तो उसमें से सोना और चांदी निकलती थी। यह बात भी माहेश्वरीयों के पूर्वज खंडेला के वासी (रहनेवाले) होने की पुष्टि करती है, साथ ही इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी समाज धनि और संपन्न भी था।

4) कृष्ण-शिव (महेश) संग्राम- शिव ने राजा बलि के पुत्र बाणासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर और बाणासुर द्वारा वर मांगने पर उसे वरदान दिया था की शिव स्वयं बाणासुर की रक्षा का दायित्व वहन करेंगे। बाणासुर को दिए वरदान के कारन भगवान शिव (महेश) ने, कृष्ण-बाणासुर युद्ध में बाणासुर के पक्ष में उतरकर बाणासुर को बचाने के लिए कृष्ण के साथ युद्ध किया था। इस प्रसंग में शिवपत्नी पार्वती का बाणासुर को बचाने के लिए कृष्ण और बाणासुर के मध्य में खड़ी होने का उल्लेख भी मिलता है। यह प्रसंग पुराणों में 'कृष्ण-शिव संग्राम' के नाम से जाना जाता है। इस प्रसंग में एक जगह वर्णन आता है की- "बाणासुर की कन्या उषा ने वन में शिव-पार्वती को रमण करते देखा तो वह भी कामविमोहित होकर प्रिय-मिलन की इच्छा करने लगी"। इन बातों से यह सिद्ध होता है की कृष्ण के समय में, महाभारत काल में भगवान “महेश और पार्वती” साकार रूप में पृथ्वी पर आया करते थे। माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति कथा के अनुसार- "देवी पार्वती द्वारा भगवान महेश (शिव) को बिनती करने पर भगवान महेश ने निष्प्राण पड़े उमरावों को जीवित (चेतन) किया था"। इससे इस बात को पुष्टि मिलती है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा यह कपोलकल्पित कहानी नहीं है बल्कि प्रमाणित इतिहास है। यथार्थ में ही माहेश्वरी समाज के संस्थापक/प्रवर्तक महेश-पार्वती है। स्वयं महेश-पार्वती द्वारा हमारे (माहेश्वरी) समाज की उत्पत्ति होना हमारे समाज के लिए गौरव की बात है।

5) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में सूर्यकुंड का उल्लेख आता है जो लोहार्गल (राजस्थान) में स्थित है। इसी कुण्ड और स्थान का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है- महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद भी पांडव अपने पूर्वजों, सगे-संबंधियों की हत्या के पाप से चिंतित थे। इस पाप से मुक्ति दिलाने के लिए कृष्ण ने कई उपाय बताए। इनमें एक उपाय ऐसा था जो काफी चौंकाने वाला था।

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भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि पाण्डव तीर्थयात्रा पर जाएं। हर तीर्थ पर पाण्डव अपने हथियारों को तीर्थ के जल से धोएं। जिस स्थान पर भीम की गदा गलकर पानी बन जाए समझ लेना यह मुक्ति स्थान है। जिस तीर्थ स्थल में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त हो जायेगा। भीम की गदा का पानी में घुल जाना संकेत होगा कि तुम्हारे पाप धुल गए। पाण्डव सालों साल तीर्थ यात्रा करते रहे। हर तीर्थ स्थान पर हथियारों को धोया लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी। तीर्थ यात्रा करते करते पांडव अरावली पर्वत पर स्थित सूर्यकुंड पर पहुंचे। यहां पहुंचकर पाण्डवों ने सूर्यकुंड में अपने हथियारों को धोया और चमत्कार हो गया। भीम की गदा के साथ-साथ युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव के हथियार भी गलकर पानी हो गए। इसके बाद इसी स्थान पर महेश-पार्वती की आराधना कर पांडवों ने मोक्ष की प्राप्ति की। यह वही स्थान है जहाँ इस घटना के कुछ समय पहले महेश-पार्वती के वरदान से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई थी। यह स्थान राजस्थान के झुंझुनू जिले में स्थित है और ‘तीर्थराज लोहार्गल’ के नाम से विश्व प्रसिद्ध है।

6) कहीं कही पर उल्लेख मिलता है की सूर्यकुंड के जल में स्नान करने के पश्चात माहेश्वरी बनने के कारन, माहेश्वरीयों को जलवंश का (जलवंशी) कहा गया। जल को पानी भी कहा जाता है इसलिए तत्कालीन स्थानिक बोलीभाषा में माहेश्वरीयों को पानिक कहा गया। आगे चलकर पानिक का अपभ्रंश होकर पणिक कहा जाने लगा। भारत के प्राचीन इतिहास में व्यापारियों तथा व्यापारियों के संघ (समूह) को 'पणिक' कहे जाने के उल्लेख बहुतायत में मिलते है। पणिक को सामान्यतः सौदागरों (व्यापारियों) के रूप में जाना जाता है। कहा गया है की- पणिक कुशल व्यापारी होते थे। आगे चलकर पणिक से बनिक, बनिक से बनिया कहे जाने लगे। कुछ इतिहासकारों एवं भाषाविदों का मानना है की इस तरह से, अप्रत्यक्ष रूप से माहेश्वरी समाज का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुवा है। मध्यकाल में माहेश्वरी शब्द का अपभ्रंश होकर कहीं कहीं पर माहेश्वरीयों को 'मेसरी' भी कहा जाता था। मुगलकाल और उसके बाद माहेश्वरीयों को मारवाड़ी भी कहा जाने लगा लेकिन मारवाड़ी यह शब्द मात्र माहेश्वरीयों के लिए ही नहीं बल्कि राजस्थान से जो लोग, विशेषतः व्यापारी समाज के लोग अन्य प्रदेशों में गये, उन सभी के लिए प्रयुक्त किया गया है। इसीके चलते जैन, अग्रवाल आदि समाज के लोगों को भी मारवाड़ी कहा जाने लगा। यद्यपि पूरा राजस्थान मारवाड़ नहीं है, मारवाड़ राजस्थान प्रान्त का एक क्षेत्र है। वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज-संगठनों के प्रयास से, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी द्वारा दिए गए नाम "माहेश्वरी" इसी नाम का प्रयोग करने को बढ़ावा मिला है।

चूँकि बौद्ध धर्म की तरह 'माहेश्वरी' नाम का प्रत्यक्ष उल्लेख प्राचीन इतिहास में नहीं मिलता है तो इसका एक कारन यह हो सकता है की पांच-छे सौ (500-600) लोगों के छोटे से समूह के किये इस बदलाव को बड़ी घटना ना मानते हुए महत्त्व नहीं दिया गया हो, इसका उल्लेख ना हुवा हो प्राचीन इतिहास में 'माहेश्वरी' का उल्लेख नहीं मिलने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है की तत्कालीन समय में, चार वर्णों पर आधारित समाजव्यवस्था में क्षत्रिय और ब्राम्हण वर्ण का वर्चस्व हुवा करता था तो क्षत्रिय वर्ण को छोड़कर नया वंश बने माहेश्वरीयों को उन्होंने अनजाने में या जानबूझकर अनदेखा किया हो देखने में आता है की तत्कालीन समय में मुख्य रूप से राजवंशों का और कुछ हद तक ऋषि परंपरा का ही इतिहास लिखने की परंपरा थी वैश्यों और क्षुद्रों का इतिहास नहीं लिखा जाता था तत्कालीन समय के ग्रंथों में वाणिज्य अर्थात वैश्य कर्म में प्रवृत माहेश्वरीयों के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलने का एक कारन यह भी हो सकता है

7) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में 6 ऋषियों का और उनके नामों का उल्लेख मिलता है जिन्हे भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज का गुरु बनाया था इसी क्रम में आगे एक और ऋषि को गुरु पद दिया गया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या 7 हो गई महाभारत में उल्लेख मिलता है की- “महर्षि पराशर ने महाराजा युधिष्ठिर को ‘शिव-महिमा’ के विषय में अपना अनुभव बताया।” महाभारत तथा तत्कालीन ग्रंथों में कई जगहों पर पराशर, भरद्वाज आदि ऋषियों का नामोल्लेख मिलता है जिससे इस बात की पुष्टि होती है की यह ऋषि (माहेश्वरी गुरु) महाभारतकालीन है, और इस सन्दर्भ से इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ती महाभारतकाल में हुई है


(1.3) उत्पत्ति कथा के आधारपर चल रही परम्पराएँ


1) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के सन्दर्भ के अनुसार ही मंगल कारज (विवाह) में बिन्दराजा मोड़ (मान) और कट्यार (कटार) धारण करके विवाह की विधियां संपन्न करता है तथा 'महेश-पार्वती' की तस्बीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार परिक्रमा करता है, इसे 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) कहा जाता है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति की वह बात याद रहे इसलिए चार फेरे बाहर के लिए जाते है (वर्तमान समय में 'महेश-पार्वती' की तसबीर के बजाय मामा फेरा के नाम से चार फेरे लेने का रिवाज भी कई बार देखा जाता है लेकिन यह अनुचित है। 
सही परंपरा का पालन करते हुए 'महेश-पार्वती' की तसबीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार (4 times) परिक्रमा करके ही यह विधि संपन्न की जानी चाहिए)। विवाह की विधि में 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) लेने की विधि मात्र माहेश्वरी समाज में ही है। इस विधि का सम्बन्ध माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा से है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी, परंपरागत रूप से माहेश्वरी समाज मनाता आया है। अन्य किसी भी समाज में यह विधि (बारला फेरा/बाहर के फेरे) नहीं है।

2) अन्य एक परंपरा के अनुसार, सगाई में लड़की का पिता लडके को मोड़ और कट्यार भेंट देता है इसलिए की ये बात याद रहे- "अब मेरे बेटीकी और उसके मान-सम्मान की रक्षा तुम्हे करनी है"। बिंदराजा को विवाह की विधि में वही मोड़ और कट्यार धारण करनी होती है (वर्तमान समय में इस परंपरा/विधि को भी लगभग गलत तरीके से निभाया जा रहा है। विवाह के विधि में धारण करने के लिए एक या दो दिन के लिए कट्यार किरायेपर लायी जा रही है। यह मूल विधि के साथ की जा रही अक्षम्य छेड़छाड़ है जो की गलत है। इस विधि के मूल भावना को समझते हुए इसे मूल या पुरानी परंपरा से अनुसार ही निभाया जाना चाहिए)।

3) माहेश्वरीयों को महेश-पार्वती ने साकार रूप में और वह भी पारिवारिक रूप में (सपत्नीक) दर्शन दिए थे इसीलिए माहेश्वरीयों में "महेश-पार्वती" की साकार स्वरुप में (मूर्ति रूप में) भक्ति-पूजा-आराधना की जाती है। अकेले महेशजी की पूजा नहीं की जाती है बल्कि एकसाथ महेश-पार्वती की भक्ति-पूजा-आराधना की परंपरा रही है। इसका तात्पर्य यह है की माहेश्वरीयों में भगवान शिव अर्थात भगवान महेशजी को शिवलिंग या शिवपिंड के बजाय मूर्ति स्वरुप में पूजने की परंपरा रही है।

जाने-अनजाने में कुछ लोगों द्वारा यह प्रचारित किया गया की महादेव की मूर्ति पूजा वर्जित है लेकिन यह सत्य नहीं है। शास्त्रों के अनुसार शिव ही एकमात्र देव है जो साकार और निराकार दोनों स्वरूपों में विराजित है और दोनों ही स्वरूपों में पूजनीय है। शिवलिंग और शिवपिंड शिव के निराकार स्वरुप का प्रतिक माने जाते है और शारीरिक रचना दर्शाती मूर्ति साकार स्वरुप का प्रतिक है। शिव के निराकार स्वरुप का प्रतिक होने के कारन शिवलिंग और शिवपिंड कितना भी खंडित होने पर भी पूजा जा सकता है लेकिन शिव-मूर्ति के खंडित होनेपर वह पूजने के लिए वर्जित है; बस यही एकमात्र अंतर है।

आमतौर पर भगवान शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में की जाती है लेकिन भगवान महेश (शिव) की मूर्ति पूजन का भी अपना ही एक महत्व है। श्रीलिंग महापुराण में भगवान शिव की विभिन्न मूर्तियों के पूजन के बारे में बताया गया है। जैसे की, कार्तिकेय के साथ भगवान शिव-पार्वती की मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, मनुष्य को सुख-सुविधा की सभी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, सुख मिलता है। भगवान शिव की अर्द्धनारीश्वर मूर्ति की पूजा करने से अच्छी पत्नी और सुखी वैवाहिक जीवन की प्राप्ति होती है। माता पार्वती और भगवान शिव की बैल पर बैठी हुई मूर्ति की पूजा करने से, संतान पाने की इच्छा पूरी होती है। जो मनुष्य उपदेश देने वाली स्थिति में बैठे भगवान शिव की मूर्ति की पूजा करता है, उसे विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है। नन्दी और माता पार्वती के साथ सभी गणों से घिरे हुए भगवान शिव की ऐसी मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य को मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।

शास्त्रानुसार शिव के निराकार स्वरुप (शिवलिंग या शिवपिंड) की पूजा-भक्ति करने से सांसारिक सुखों की नहीं बल्कि मात्र मोक्ष की प्राप्ति होती है इसी कारन से सांसारिक मोहमाया से दूर रहनेवाले साधु-सन्यासी शिवलिंग या शिवपिंड की पूजा-आराधना करते है सांसारिक, भौतिक सुखों की चाह रखनेवालों तथा गृहस्थियों को शिव के साकार स्वरुप अर्थात मूर्ति की पूजा-आराधना करना ही उचित है जिससे सांसारिक और भौतिक सुखों (धन-धान्य-ऐश्वर्य आदि) के साथ ही अंत में मोक्ष (शिवधाम) भी प्राप्त होता है मोक्षप्राप्ति की इच्छा से की जानेवाली पूजा-साधना में बेलपत्र चढाने की महिमा है तो सांसारिक और भौतिक सुखों की चाह से की जानेवाली पूजा में सोनपत्ता (आपटा पर्ण) चढाने का विधान है धन-धान्यादि ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु गणेशजी को भी सोनपत्ता (आपटा पर्ण) चढाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है

4) प्राचीनकाल में शुभ प्रसंगों में तथा प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन गुरु अपने शिष्यों के हाथ पर, पुजारी और पुरोहित अपने यजमानों के हाथ पर एक सूत्र बांधते थे जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी कहा जाने लगा। वर्तमान समय में भी रक्षासूत्र बांधने की इस परंपरा का पालन हो रहा है आम तौर पर यह रक्षा सूत्र बांधते हुए ब्राम्हण "येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।" यह मंत्र कहते है जिसका अर्थ है- "दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।" लेकिन तत्थ्य बताते है की माहेश्वरी समाज में रक्षासूत्र बांधते समय जो मंत्र कहा जाता था वह है-
स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु, विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु l
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु, वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु ll
(अर्थ - आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति भी बनी रहे आपका वंश सदैव दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे।) इसका सन्दर्भ भी माहेश्वरी उत्पत्ति कथा से है माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित कथानुसार, निष्प्राण पड़े हुए उमरावों में प्राण प्रवाहित करने और उन्हें उपदेश देने के बाद महेश-पार्वती अंतर्ध्यान हो गये उसके पश्चात ऋषियों ने सभी को "स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु...." मंत्र कहते हुए रक्षासूत्र बांधा था यह रक्षामंत्र भी मात्र माहेश्वरी समाज में ही प्रचलित था/है गुरु परंपरा के ना रहने से तथा माहेश्वरी संस्कृति के प्रति समाज की अनास्था के कारन यह रक्षामंत्र लगभग विस्मृत हो चला है

वर्तमान समय में, नवनिर्मित वास्तु की 'वास्तुशान्ति' पूजाविधि में इसी 'स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु....' मंत्र का प्रयोग (कुछ मामूली बदलावों के साथ) किया जा रहा है इससे इतना तो प्रतीत होता ही है की यह मंत्र नवनिर्माण, नवनिर्मिति से सम्बंधित है इससे माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय गुरुओं द्वारा रक्षासूत्र बांधते समय इस मंत्र को कहे जाने के महात्म्य की, इस मंत्र के प्राचीनता की तथा इस मंत्र के माहेश्वरीयों से सम्बंधित होने की पुष्टि होती है

(2) समाज प्रबंधन व्यवस्था


माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के साथ ही भगवान महेशजी ने 6 ऋषियों को माहेश्वरी समाज का गुरुपद प्रदान किया और उनपर माहेश्वरीयों को मार्गदर्शित करने का दायित्व सौपा कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है सौपे गए दायित्व का निर्वहन करने के लिए गुरुओं ने एक व्यवस्था एवं प्रबंधन के निर्माण का ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया जिनमें गुरुपीठ की स्थापना प्रमुख कार्य है अन्य एक महत्वपूर्ण कार्य यह की- माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति क्षत्रिय वर्ण में से हुई है माहेश्वरी वंशोत्पत्ति फलस्वरुप क्षत्रिय कर्म छोड़कर वाणिज्य कर्म में प्रवृत होने पर भी माहेश्वरीयों को वैश्य वर्ण का नहीं मानते हुए 'वर्णातित' कहा है वर्णातित- इसका तात्पर्य है की माहेश्वरी क्षत्रिय, ब्राम्हण, वैश्य या शूद्र इन में से किसी वर्ण के अंतर्गत नहीं आते है बल्कि माहेश्वरी मात्र "माहेश्वरी" है, वर्णातित है गुरुओं के कहा- ऐसा कोई वाणिज्य व्यापार नहीं है, जो समाज की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रतिकूल माना जाता हो। व्यवसाय के आधार पर कोई भेद नहीं रहेगा और व्यवसाय चाहे कौनसा भी करें पहचान व्यवसाय के आधार पर (नाम पर) नहीं बल्कि मात्र माहेश्वरी नाम से होगी इसका अर्थ यह है की वर्ण, उच-नीच भेदभाव और जाती विरहित एक आदर्श समाज-व्यवस्था का निर्माण किया

माहेश्वरी गुरुओं ने अपने दायित्व को निभाते हुए समाज को मार्गदर्शित करने के लिए धर्म सिद्धांत, यम-नियम सिद्धांत को उद्धृत किया निशान, ध्वज, पञ्चनमस्कार महामन्त्र, अभिवादन, जयकारा, अनकोट, महेश वंदना, करसेवा, गो-ग्रास, मिन्दर (मंदिर) आदि व्यवस्थाओं का निर्माण किया


(2.1) सप्त गुरु

माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के अनुसार माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने महर्षि पराशर, ऋषि सारस्वत, ऋषि ग्वाला, ऋषि गौतम, ऋषि श्रृंगी, ऋषि दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा। इन्हे गुरुमहाराज के नाम से जाना जाने लगा। कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। 7 गुरु योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं, 8वां अंग साक्षात् भगवान महेशजी का प्रतिक मोक्ष है। गुरुमहाराज माहेश्वरी समाज का ही (एक) अंग (माहेश्वरी) माने गए।

गुरु पराशर -


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महाभारत काल में एक महान ऋषि हुए, जिन्हें महर्षि पराशर के नाम से जाना जाता हैं। महर्षि पराशर मुनि शक्ति के पुत्र तथा वसिष्ठ के पौत्र थे। ये महाभारत ग्रन्थ के रचयिता महर्षि वेदव्यास के पिता थे (पराशर के पुत्र होने के कारन कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को ‘पाराशर’ के नाम से भी जाना जाता है)। पराशर की परंपरा में आगे वेदव्यास के शुकदेव, शुकदेव के गौड़पादाचार्य, गौड़पादाचार्य के गोविंदपाद, गोविंदपाद के शंकराचार्य (आदि शंकराचार्य) हुए। सबके सब आदिशक्ति माँ भगवती के उपासक रहे है। महर्षि पराशर प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि परंपरा की श्रेणी में एक महान ऋषि हैं। योग सिद्दियों के द्वारा अनेक महान शक्तियों को प्राप्त करने वाले महर्षि पराशर महान तप, साधना और भक्ति द्वारा जीवन के पथ प्रदर्शक के रुप में सामने आते हैं। इनका दिव्य जीवन अत्यंत आलोकिक एवम अद्वितीय हैं। महर्षि पराशर के वंशज पारीक कहलाए।

महर्षि पराशर ने धर्म शास्त्र, ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र विषयक ज्ञान मानव मात्र को दिया। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ “व्रह्त्पराषर, होराशास्त्र, लघुपराशरी, व्रह्त्पराशरी, पराशर स्मृति (धर्म संहिता), पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर नीतिशास्त्र आदि मानव मात्र के कल्याण के लिए रचित ग्रन्थ जग प्रसिद्ध हैं। महर्षि पराशर ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के उपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे। कहा जाता है कि कलयुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री अब तक नहीं हुए। यद्यपि महर्षि पराशर ज्योतिष ज्ञान के कारन प्रसिद्ध है लेकिन इससे भी बढ़कर उनका कार्य है की, उन्होंने धर्म की स्थापना के लिए अथक प्रयास किया।

द्वापर युग के उत्तरार्ध में (जिसे महाभारतकाल कहा जाता है) धर्म की स्थापना के लिए दो महान व्यक्तित्वों ने प्रयास किये उनमें एक है श्रीकृष्ण और दूसरे है महर्षि पराशर। श्रीकृष्ण ने शस्त्र के माध्यम से और महर्षि पराशर ने शास्त्र के माध्यम से धर्म की स्थापना के लिए प्रयास किया। तत्कालीन शास्त्रों में उल्लेख मिलते है की धर्म की स्थापना के लिए महर्षि पराशर ने अथक प्रयास किये, वे कई राजाओं से मिले, उनके इस प्रयास से कुछ लोग नाराज हुए, महर्षि पराशर पर हमले किये गए, उन्हें गम्भीर चोटें पहुंचाई गई। महर्षि पराशर द्वारा रचित "पराशर स्मृति" (धर्म संहिता), उनके धर्म स्थापना के इसी प्रयासों में से किया गया एक प्रमुख कार्य है।

पराशर स्मृति- ग्रन्थों में वेद को श्रुति और अन्य ग्रंथों को स्मृति की संज्ञा दी गई है। ग्रन्थों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्व है। प्रमुख रूप से 18 स्मृतियां मानी गई है। मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, गौतम, शंख, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं जो धर्म शास्त्र के रूप में स्वीकार की जाती हैं। स्मृतियों को धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। 12 अध्यायों में विभक्त पराशर-स्मृति के प्रणेता वेदव्यास के पिता महर्षि पराशर हैं, जिन्होंने चारों युगों की धर्मव्यवस्था को समझकर सहजसाध्य रूप धर्म की मर्यादा निर्दिष्ट (निर्देशित) की है पराशर स्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह स्मृति कृतयुग (कलियुग) के लिए प्रमाण है, गौतम त्रेता के लिए, शंखलिखित स्मृति द्वापर के लिए और पराशर स्मृति कलि (कलियुग) के लिए महर्षि पराशर अपने एक सूत्र में कहते है की- ज्योतिष, धर्म और आयुर्वेद एक-दूसरे में पूर्णत: गुंथे हुए हैं

गुरु सारस्वतग्वाला, गौतम, श्रृंगी और दाधीच -


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ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए- सारस्वत, ग्वाला, 
गौतम, श्रृंगी और दाधीच। उसमें से प्रथम पुत्र सारस्वत ऋषि के वंशज सारस्वत कहलाए, दूसरे पुत्र ग्वाला ऋषि के वंशज गौड़ कहलाए, तीसरे पुत्र गौतम ऋषि के वंशज गुर्जर गौड़ कहलाए, चौथे पुत्र श्रृंगी ऋषि के वंशज शिखवाल कहलाए, पांचवें पुत्र दाधीच ऋषि के वंशज दायमा या दाधीच कहलाए। संयोगवश इन पांचो ऋषियों (सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच) और महर्षि पराशर के पिता का नाम "शक्ति" ही है परन्तु यह एक ही नाम के दो अलग-अलग ऋषि थे। महर्षि पराशर के पिता मुनि शक्ति जो है, ब्रम्हर्षि वशिष्ठ के पुत्र है तो सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी और दाधीच इन पांचो ऋषियों के पिता ऋषि शक्ति जो है, वह कृपाचार्य के पुत्र है।

गुरु भरद्वाज -


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महाभारत के अनुसार अजेय धनुर्धर तथा कौरवों और पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य इन्हीं ऋषि भरद्वाज के पुत्र थे। महाभारत ग्रन्थ में वर्णन आता है कि ऋषि भरद्वाज धर्मराज युधिष्टिर के राजसूय-यज्ञ में भी आमंत्रित थे। ये आयुर्वेद के ज्ञाता ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे। वे जहाँ आयुर्वेद के धुरन्धर ज्ञाता थे, वहीं मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों क्षेत्रों में पारंगत थे। एक महान् आयुर्वेदज्ञ के अतिरिक्त भरद्वाज ऋषि एक अद्भुत विलक्षण प्रतिभा-संपन्न विमान-शास्त्री थे। दिव्यास्त्रों से लेकर विभिन्न प्रकार के अस्त्र, शस्त्र, यन्त्र तथा विलक्षण विमानों के निर्माण के क्षेत्र में आज तक उनके स्थान को कोई पा नहीं सका है।

परमाणु-ऊर्जा विभाग के भूतपूर्व वैज्ञानिक जी. एस. भटनागर द्वारा संपादित पुस्तक `साइंस एण्ड टेक्नालोजी ऑफ डायमण्ड´ में कहा गया है कि `रत्न-प्रदीपिका´ नामक प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में कृत्रिम हीरा के निर्माण के विषय में मुनि वैज्ञानिक भरद्वाज ने हीरे और कृत्रिम हीरे के संघटन को विस्तार से बताया है। पचास के दशक के अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी द्वारा पहले कृत्रिम हीरे के निर्माण से भी सहस्रों वर्ष पूर्व मुनिवर भरद्वाज ने कृत्रिम हीरा के निर्माण की विधि बतलायी थी। एकदम स्पष्ट है कि वे रत्नों के पारखी ही नहीं, रत्नों की निर्माण-विधि के पूर्ण ज्ञाता भी थे। माहेश्वरीयों के सातवे गुरु ऋषि भरद्वाज के वंशज आगे खंडेलवाल कहलाए।

माहेश्वरीयों के इन सातों गुरुओं के वंश को ब्राह्मर्षि/ब्राम्हर्षि (ब्राह्मर्षि या ब्राह्मवर्त देश के निवासी) कहा जाता था ब्राह्मवर्त अर्थात सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच का क्षेत्र महाभारतकालीन कुरु, मत्स्य, पंचाल और शूरसेन जनपद के चारों ओर के प्रदेश को ब्राह्मर्षि देश कहा गया है। जैसे राजस्थान के मारवाड़ प्रान्त के मूल निवासियों को मारवाड़ी कहा जाता है वैसे ही ब्राह्मवर्त देश के मूल निवासियों को ब्राम्हर्षि (ब्राह्मर्षि) कहा गया है मनुस्मृति में कहा गया है की-
कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पांचालाः शूरसेनका:। एष ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः।
ब्राह्मवर्त के चारों ओर के प्रदेश को जिसमें कुरु, मत्स्य, पंचाल और शूरसेन जनपद आते हैं, ब्राह्मर्षि देश कहा गया है। यही क्षेत्र हैं जहाँ सदाचार का विकास हुआ है इसी प्रदेश में पहुंचकर संस्कृति का चरित्र और भी निखरा संसार को इन्होंने ही सभ्यता सिखाई है
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:।।
अर्थात् इस प्रदेश में जन्मे अग्रजन्माओं (ब्राम्हर्षियों) से पृथिवी के सभी मानव अपने-अपने लिए चरित्र की शिक्षा प्राप्त करते हैं।

वर्तमान समय में पारीक, सारस्वत, गौड़ (गौर), गुर्जर गौड़, दाधीच (दाहिमा/दायमा), सिखवाल, खाण्डल (खण्डेलवाल) आदि ब्राम्हर्षियों को छः न्याति ब्राह्मणों के नाम से तथा मारवाड़ी/माहेश्वरी ब्राम्हण के नाम से जाना जाता है। आगे इनकी और कई नख/उपखांपे हुयी जैसे– ओझा, तिवारी, शर्मा, आदि. कहीं-कहींपर इन गुरुओं को पुरोहित कहकर जाना जाने लगा। कई शतकों तक गुरु मार्गदर्शित व्यवस्था बनी रही। तथ्य बताते है की प्रारंभ में 'गुरुमहाराज' द्वारा बताई गयी नित्य प्रार्थना, वंदना (महेश वंदना), नित्य अन्नदान, करसेवा, गो-ग्रास आदि नियमोंका समाज कड़ाई से पालन करता था। फिर मध्यकाल में भारत के शासन व्यवस्था में भारी उथल-पुथल तथा बदलाओंका दौर चला। दुर्भाग्यसे जिसका असर माहेश्वरियों की सामाजिक व्यवस्थापर भी पड़ा और जाने-अनजाने में माहेश्वरी अपने गुरुपीठ और गुरूओंको भूलते चले गए। जिससे समाज को उचित मार्गदर्शन करनेवाली व्यवस्था ही समाप्त हो गई परिणामतः समाज की बड़ी क्षति हुई है और आज भी हो रही है।


(2.2) गुरुपीठ

माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के अनुसार माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने ऋषि पराशर, सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच इन छः (6) ऋषियों को सौपा। कालांतर में इन गुरुओं ने महर्षि भारद्वाज को भी माहेश्वरी गुरु पद प्रदान किया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या सात हो गई जिन्हे माहेश्वरीयों में सप्तर्षि कहा जाता है। इन सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रबंधन-मार्गदर्शन का कार्य सुचारू रूप से चले इसलिए एक 'गुरुपीठ' को स्थापन किया जिसे "माहेश्वरी गुरुपीठ" कहा जाता था। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) है। सप्तगुरुओं ने माहेश्वरी समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) और ध्वज का सृजन किया ध्वज को "दिव्य ध्वज" कहा गया दिव्य ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी गुरुपीठ के पीठाधिपति “महेशाचार्य” की उपाधि से अलंकृत थे। महेशाचार्य- यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद है। महर्षि पराशर माहेश्वरी गुरुपीठ के प्रथम पीठाधिपति है और इसीलिए महर्षि पराशर "आदि महेशाचार्य" है। अन्य ऋषियों को 'आचार्यश्रेष्ठ' इस अलंकरण से जाना जाता था। गुरुपीठ माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र माना जाता था। माहेश्वरीयों से सम्बन्धीत किसी भी आध्यात्मिक-सामाजिक विवाद पर गुरुपीठ द्वारा लिया/किया गया निर्णय अंतिम माना जाता था।

कालांतर में गुरुपीठ के स्थायित्व के लिए सप्तगुरुओं द्वारा महेशाचार्य, महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ, आचार्य, समाचार्य, पुजारी/पुरोहित और गण की श्रेणियों को परिभाषित किया गया-
महेशाचार्य- महेशाचार्य माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक संस्था के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है महेशाचार्य माहेश्वरी समाज में सर्वोच्च समाज गुरु (धर्म गुरु) का पद है
महाचार्य- माहेश्वरी गुरुपीठ के पीठाधिपति (महेशाचार्य) द्वारा घोषित उनका उत्तराधिकारी
आचार्यश्रेष्ठ- पीठाधिपति और महाचार्य के आलावा अन्य पांच माहेश्वरी गुरु ये पीठाधिपति के सलाहकार मंडल के रूप में कार्य करते है 
आचार्य- अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव और कार्य के आधारपर समाज के लिए आवश्यक एवं उपयोगी भिन्न-भिन्न विषयों पर समाज को मार्गदर्शित करने का कार्य करते है 
समाचार्य- किसी विशेष विषय के अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव और कार्य के आधारपर समाज के लिए समय-समयपर आवश्यक एवं उपयोगी मार्गदर्शन करनेवालें समाचार्य (आचार्य के समान) है
पुजारी/पुरोहित- मिन्दरों में, यजमान के घर, व्यावसायिक स्थान पर अथवा तीर्थस्थान पर यजमान के लिए पूजा-अर्चनादि विधियों को संपन्न करनेवाले
गण- गण अर्थात शिष्य अथवा दूत गण अर्थात किसी समान उद्देश्य वाले लोगों का समूह (यहाँ पर माहेश्वरी वंश के (समस्त जनसामान्य) लोगों के लिए 'गण' शब्द का प्रयोग किया गया है)

गुरुपीठ ने विधान बनाया की कोई भी ब्राम्हर्षि/माहेश्वरी, गुरुपीठ द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार, अपने अध्ययन, ज्ञान, अनुभव, कार्य और सदाचार के आधारपर महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ, आचार्य, समाचार्य अथवा पुजारी/पुरोहित बन सकता है गुरुपीठ ने महेशाचार्य, महाचार्य, आचार्यश्रेष्ठ और आचार्य को गुरु की श्रेणी में और अन्य सभी को शिष्य की श्रेणी में रखा समाज को अनवरत मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे इसलिए यह समाज के लिए किया गया बहुत बड़ा, ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य है। यह माहेश्वरीयों का, माहेश्वरी समाज का दुर्भाग्य है की जाने-अनजाने में माहेश्वरी समाज अपने गुरुपीठ और गुरूओंको भूलते चले गए परिणामतः समाज को उचित मार्गदर्शन करनेवाली व्यवस्था ही समाप्त हो गई जिससे समाज की बड़ी क्षति (हानि) हुई है और आज भी हो रही है


(2.3) धर्म सिद्धांत


धर्म -

- सत्य, प्रेम और न्याय इन तीन सिद्धांतों के दायरे के अंतर्गत, सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म “धर्म” हैं।


- जिस कर्म से सबका कल्याण हो, वह धर्म है अर्थात् हमारे वे कार्य जिनसे समस्त सृष्टि का भला होता है, वह हमारा धर्म है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥
(इसी श्लोक का शुरुवाती (पहला) चरण "सर्वे भवन्तु सुखिन:" माहेश्वरी समाज का बोधवाक्य है)

- मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल, जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्धति हैं वही धर्म हैं।

- धर्म वह है जिससे इस जीवन का विकास और अगले जीवन (जन्म) का सुधार हो
\'\'यतोऽभ्युदयानि: श्रयेसिद्धि स धर्म:।

- हर वह कर्म जो औरों के द्वारा हमारे प्रति किया जाना हमें अच्छा लगता हो, वह धर्म है। (जैसे हम चाहते हैं कि दूसरे हमसे सत्य बोलें तो सत्य-भाषण धर्म है, दूसरे हमें कष्ट न पहुचाएं तो अहिंसा धर्म है हर वह कर्म जो हमें हमारे प्रति किया जाना अच्छा न लगता हो वह अधर्म है (जैसे हम नहीं चाहते कि कोई हमारे बारे में बुरा सोचे व हमसे द्वेष रखे तो दूसरों के प्रति बुरा सोचना व दूसरों से द्वेष रखना अधर्म है।)

- यद्यपि बाहरी चिन्हो (कपड़े कैसे पहनें, बाल कैसे रखें या माला धारण करना आदि) का अपना एक महत्व है लेकिन मात्र बाहरी चिन्ह किसी को धर्म का पालन करनेवाला, धार्मिक या धर्मात्मा नहीं बनाते ज्यादातर यह बातें देश, काल, ऋतु और रूचि पर आधारित होती हैं। धर्म का पालन करनेवाला, धार्मिक या धर्मात्मा वह है जो धर्मों के सिद्धांतों के अनुसार आचरण करता है

सत्य -

जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना सत्य कहलाता है धर्म में सत्य ही को पहला स्थान है- सत्यंवद, धर्मंचर सत्य ही परम बल है गौ, गौवंश अथवा किसी निर्दोषी के प्राणरक्षा के लिए कहा गया असत्य सत्यसमान (सत्य के समान) है

गुरुओं ने सत्य को परिभाषित करते हुए कहा है की- जो सत्य इस प्रकार धर्म है, परम बल है, उसके लिए कुछ अपवाद भी हैं। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किये जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जाकर छिप जाये। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगे कि वे आदमी कहाँ चले गये? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोल कर सब हाल (सच) कह दोगे या उन निरपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना सत्य ही के समान है। ऐसे परिस्थिति में पूछे पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए यदि मालूम भी हो तो अनाड़ी या नासमझ के समान कुछ हूँ हूँ करके बात बना देना चाहिए यदि बिना बोले छुटकारा हो सके तो, कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ सन्देह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक उपयुक्त है। इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है। अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्थ (असत्य) है। जिससे सभी की हानि हो वह न तो सत्य ही है और न ही धर्म। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचाये। शास्त्रों में, खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त प्रायश्चित अथवा वधदण्ड की सजा कही गई है। इसलिए वह तो सजा पाने या वध करने के ही योग्य है।

न नर्मयुक्त वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाह काले।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे पंचानृताम्याहुरपातकानि॥
अर्थात् ‘हंसी में’ स्त्रियों के साथ, विवाह के समय, जब जान पर आ बने तब और सम्पत्ति की रक्षा के लिए, झूठ बोलना पाप नहीं है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा ही झूठ बोला करें, केवल हसी मजाक के समय ही यह अनुचित नहीं है

व्यवसाय के कारणवश झूठ बोलना अथवा व्यापारियों का अपने लाभ के लिए झूठ बोलना भी उचित नहीं है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है तो यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा सा अधर्म (पाप) ही है, इसके फलस्वरूप कीर्ति में न्यूनता आती है और इसके लिए प्रायश्चित भी कहा गया है- ऐसे असत्य वचन या आचरण से प्राप्त धन (कमाई) का तीसरा भाग (हिस्सा) गुप्तदान पद्धति से दान करना चाहिए

प्रेम -

प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है। प्रेम अर्थात बिना किसी शर्त के 'संपूर्ण समर्पण'। सच्चा प्रेम भगवान का अनुभव करवाता है।

प्रेम एक ‘भाव’ (भावना) है प्रेम मनुष्य (आत्मा) का स्व-भाव, स्व-रूप है मन पर पड़े हुए द्वेष रूपी धुंध के हटते ही प्रेम उभरकर प्रकट होता है मनुष्य को चाहिए की वह सदैव प्रेममय रहे अर्थात अपने स्व-भाव स्थित में रहे

किसी का भी द्वेष नहीं करना ही प्रेम है

न्याय -

नैतिकता, औचित्य, विधि (कानून), प्राकृतिक विधि और धर्म के आधार पर 'ठीक' होने की स्थिति को न्याय (justice) कहते हैं।


(2.4) यम नियम सिद्धांत


यम- पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना। सुख, दु:ख, हानि, लाभ, मान, अपमान में धैर्य रखना। सहनशीलता। बलवान के कष्ट देने पर निर्बल द्वारा उसे सह लेना, यह सहनशीलता नहीं है अपितु असमर्थता है। शरीर में सामर्थ्य होने पर भी बुराई का बदला न लेना क्षमा है। धर्म का यह लक्षण प्रत्येक का अपना आत्मिक बल बढ़ाने वाला होता है। दूसरों के साथ अन्याय होते हुए देखना और प्रत्युत्तर में कुछ न करना धर्म नहीं। अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करने को सहनशीलता कहा जा सकता है। परन्तु यदि अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करना अन्यायी का हौसला बढ़ाने वाला है या समाज में गलत उदाहरण सिद्ध करने वाला है तो इसे सहनशीलता मानकर कदापि चुप नहीं बैठना चाहिए।

क्रोध हिंसा को प्रवृत करता है। इच्छा के पूरा न होने से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसका त्याग करना चाहिये। तदापि दुष्टों के दमन व न्याय की रक्षा के लिए क्रोध आना ही चाहिए। ऐसे समय में अक्रोध का कवच धारण करना अधर्मी होना है। क्रोध का उद्देश्य बुराई को रोक कर दूसरों का कल्याण करना होना चाहिए न कि बदला लेना।

"अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l"
अर्थात् यदि अहिंसा परम् धर्म है, तो धर्म के लिए अर्थात सत्य की रक्षा हेतु अथवा अन्याय का विरोध करने तथा होते हुए अन्याय को रोकने के लिए न्यायसम्मत (कानून के अनुसार) तथा यथोचित (अर्थात जीतनी आवश्यक हो मात्र उतनी ही) हिंसा करना भी परम् धर्म है। अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है, और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना (शस्त्र उठाना) उस से भी श्रेष्ठ है।
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना सत्य कहलाता है। धर्म में सत्य ही को पहला स्थान है- सत्यंवद, धर्मंचर सत्य ही परम बल है गौ, गौवंश अथवा किसी निर्दोषी के प्राणरक्षा के लिए कहा गया असत्य सत्यसमान (सत्य के समान) है
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना अन्याय से धन आदि ग्रहण न करना तथा बिना आज्ञा दूसरे का पदार्थ न लेना ही अस्तेय है। अर्थात चोरी, डाका, रिश्वतखोरी, चोर बाज़ारी आदि का त्याग करना।
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं :
- चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
- सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। तदापि अपरिग्रह का यह अर्थ कदापि नहीं है की अर्थार्जन (धनार्जन) हेतु किये जानेवाले कर्म छोड़ दे। 'अर्थ' को चार पुरुषार्थों में धर्म के बाद का दूसरा स्थान दिया गया है। इसे एक पुरुषार्थ कहा गया है। तो यह पुरुषार्थ भी होता रहे और अपरिग्रह का पालन भी हो इसलिए जीवनयापन के लिए आवश्यक संचय के अतिरिक्त धन अन्नदान, गौसेवा, रुग्णसेवा, गुरुकुल (शिक्षा-केंद्र/शिक्षा के कार्य में) आदि समाजहितोपयोगी कार्य के लिए दान करे।

नियम- पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि शरीर के अन्दर की तथा बाहर की शुद्धि रखना। बाहर की अथवा शरीर आदि की शुद्धि से रोग उत्पन्न नहीं होते जिस से मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। बाहर की शुद्धि का प्रयोजन मानसिक प्रसन्नता ही है। अन्दर की शुद्धि राग, द्वेष आदि के त्याग से होती है। शुद्ध सात्विक भोजन तथा वस्त्र, स्थान, मार्ग आदि की शुद्धि भी आवश्यक है।
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना मन को बुरे चिन्तन से हटाकर अच्छे कामों में लगाना। हाथ, पांव, मुख आदि इन्द्रियों को अच्छे कामों में लगाना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
जब हम इन दस अंगों को जीवन में उपयोग करते हैं तो धर्म खुद ही हमारे जीवन में चला आता है। अगर हम धर्म के नियमों का पालन करेंगे तो कई परेशानियां अपनेआप ही समाप्त हो जाएंगी। जीवन जीने का यह सर्वोत्तम तरीका है, जिसे राजमार्ग भी कह सकते हैं। जो इस संसार को सुखी, समृद्ध, प्रेममय और ईश्वरमय बनाता है, किंतु आवश्यकता इस बात की है कि धर्म में निहित उस उच्चतर ज्ञान को गहराई से समझें और समझने के साथ-साथ जीवन में अपनाएं। क्योंकि पढऩे की अपेक्षा समझना, समझने की अपेक्षा उस पर गहन चिंतन करना और चिंतन करने से भी उसे आचरण में उतारना अधिक महत्वपूर्ण है।

(2.5) परमेश्वर (देवाधिदेव भगवान महेशजी)


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गुरुओं ने ईश्वर इस शब्द को ना कहते हुए परमेश्वर (परम ईश्वर) शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने कहा की परमेश्वर को वस्तुतः परिभाषित ही नहीं किया जा सकता किन्तु हम इसे इस तरह समझ सकते है की- वह स्व-निर्मित (स्वयंभू) परमसत्ता है। या इसे इस तरह से समझे की वह निर्धूर, निर्वात ज्योत है। परमेश्वर- सभी में वो ही है, उसी में सब है। परमेश्वर का कोई रूप अथवा गुण नहीं है इसलिए भक्त भक्ति करने के लिए परमेश्वर को अपनी इच्छानुसार किसी गुण (निर्गुण अथवा सगुन), रूप व आकार में अथवा बिना आकार का (निराकार) देखने के लिए स्वतंत्र है। हम माहेश्वरी परमेश्वर को महेश के शारीरिक रचनावाले आकार में (साकार स्वरुप में) एवं पारिवारिक गुण वाले, सौम्य, करुणावतारं रूप में अर्थात "भगवान महेश" के स्वरुप में दर्शन व भक्ति करते है। 

महेश परिवार- माहेश्वरी समाज में महेश परिवार की महिमा मुख्य रूप से पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। माहेश्वरी समाज में शिव को महेश के स्वरुप में पूजने की परंपरा है और विशेष बात यह है की माहेश्वरीयों में अकेले भगवान महेशजी की नही बल्कि "महेश परिवार" या महेश-पार्वती की एकत्रित आराधना / पूजा का विधान है

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(2.6) पवित्र निशान


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"मोड़" यह माहेश्वरीयों का पवित्र निशान है, जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है। त्रिशूल धर्मरक्षा के लिए समर्पण का प्रतीक है। जैसे ॐ भगवान महेश का प्रतिक है वैसे ही 'त्रिशूल' आदिशक्ति (देवी पार्वती) का प्रतिक है। वृत्त अखिल ब्रम्हांड का प्रतिक है। वृत्त के बिच का ॐ (प्रणव) स्वयं भगवान महेशजी का प्रतिक है।

(2.7) दिव्य ध्वज


केसरिया रंग के ध्वज पर गहरे नीले रंग में पवित्र निशान 'मोड़' अंकित होता है, इसे 'दिव्य ध्वज' कहते है। यह ध्वज सम्पूर्ण माहेश्वरियों को एकत्रित रखता है, आपस में एक-दुसरेसे जोड़े रखता है।

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(2.8) पञ्चनमस्कार महामन्त्र


ॐ नमो प्रथमेशानं
ॐ नमो महासिद्धानं
ॐ नमो जगदगुरुं
ॐ नमो सदाशिवं
ॐ नमो सर्वे साधूनां
एते पञ्चनमस्कारान् श्रद्धया प्रत्यहं पठेत् l
साध्यते सुखमारोग्यं सर्वेषां मङ्गलं भवेत् ll

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अर्थात प्रथमेशों को नमस्कार। प्रथमेश अर्थात वह, जिसने साधना का श्रीगणेशा (प्रारम्भ) कर दिया है। महासिद्धों को नमन। जो पाना है उसे सम्पूर्णता, समग्रता से, विशेष प्रावीण्यता के साथ पानेवालों को नमस्कार। जगदगुरुं को नमस्कार। जगद (जगत) में जितने गुरु है उन सभी को नमस्कार। सदाशिव को नमस्कार अर्थात सदैव ही असत्य, द्वेष, अन्याय का नाश करनेवालों तथा सत्य, प्रेम और न्याय देनेवालों को नमस्कार। जगत में जो भी साधू हैं, उन सबको नमस्कार। साधु अर्थात सज्जन जो स्वयं सत्य, प्रेम, न्याय रूपी धर्म के मार्ग पर चलता हो, उन सबको नमस्कार।

संसार के सभी दूसरे मंत्रों में भगवान से या देवताओं से किसी न किसी प्रकार की माँग की जाती है, लेकिन इस मंत्र में कोई माँग नहीं है। जिस मंत्र में कोई याचना की जाती है, वह छोटा मंत्र होता है और जिसमें समर्पण किया जाता है, वह मंत्र महान होता है, महामंत्र होता है इस मंत्र में पाँच पदों को समर्पण और नमस्कार किया गया है इसलिए यह महामंत्र है।

‘पञ्चनमस्कार महामन्त्र’ माहेश्वरी समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मन्त्र है। माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेश-पार्वतीजी द्वारा बनाये गए माहेश्वरी गुरुओं द्वारा इस महामंत्र को प्रकट किया गया l इसे 'मंगलाचरण मन्त्र', 'महामंत्र', 'महाबीजमन्त्र', 'मूलमंत्र' या 'पञ्चनमस्कार महामंत्र' भी कहा जाता है। मान्यता है की पंचनमस्कार मंत्र की रचना महर्षि भारद्वाज द्वारा की गई है

(2.9) अनकोट


माहेश्वरी मिन्दरों (मंदिरों) में प्रदान किए जाने वाले नि:शुल्क, शाकाहारी भोजन को 'अनकोट' कहते हैं (अब तो यह कहना पड़ेगा की- कहा जाता था)। अनकोट, सभी लोगों के लिये खुला होता है चाहे वे माहेश्वरी हो या नहीं। मिन्दरों (मंदिरों) में प्रतिदिन, विशेष अवसरों पर भोज की व्यवस्था होती है, जिसमें पूरी, साग (सब्जी), खिचड़ी, कड्डी, चूरमा तथा पानी का प्रसाद दिया जाता है। सभी लोग चाहे वो किसी भी जाती से या समुदाय से हो भूमि पर एक ही पंक्ति में बैठकर प्रसाद ग्रहण करते है। माहेश्वरी समाजजन और गुरु स्वयं जाकर अनकोट में सेवा करते। "अनकोट" को माहेश्वरी समाज के बोधवाक्य "सर्वे भवन्तु सुखिनः" के व्यापक दृष्टिकोण से लिया गया है अनकोट की प्रथा इसी "सर्वे भवन्तु सुखिनः" सिद्धांत का व्यवहारिक स्वरूप है।

अगर सोचा जाये तो असलियत में अनकोट एक क्रन्तिकारी कदम था। क्षत्रिय कर्म छोड़कर वाणिज्य कर्म शुरू करने के बाद माहेश्वरीयों को व्यापार के निमित्त दूरदराज के स्थानों पर जाना पड़ता था, वहां के स्थानीय निवासियों से संपर्क रखना पड़ता था। ऐसे में सभी से अच्छा मेलमिलाप रहे, स्थानीय लोगों के मन में माहेश्वरीयों के प्रति आत्मीयता, प्रेम रहे इसलिए भी अनकोट प्रथा बहुत अच्छा योगदान दे सकती थी। रोटी ही सबसे बड़ी जरूरत है इंसान की, भूख के आगे बड़ो बड़ो का अहंकार मिटटी में मिल जाता है। पेट में पहुंची रोटी दिलों को जोड़ देती है। कहा जाता है की अन्नदान से बड़ा कोई दान नहीं है। संभवतः गुरुओं ने बहुत सोच-समझ के साथ अनकोट प्रथा की शुरुवात की थी।

आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व में अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के लगभग चार हजार वर्ष बाद स्थापन हुए सिख धर्म के गुरुओं ने इस प्रथा के महत्त्व को बहुत अच्छे से समझा था। सिख धर्म के गुरुओं ने इसी अनकोट को 'लंगर' के रूप में सिख धर्म की एक अनिवार्य प्रथा के रूप में शुरू किया। सिख धर्म में इसे आज भी निभाया जाता है लेकिन वर्तमान में माहेश्वरी समाज में अनकोट प्रथा का विकृतिकरण हो गया है। अब मात्र वर्ष में एकबार अनकोट का आयोजन किया जाता है और उसमें भी सिर्फ माहेश्वरी समाजजन एकत्रित होकर भोजन करते है। अनकोट का मूल उद्देश्य गुम हो गया है और यह प्रथा मात्र माहेश्वरीयों का सहभोजन बनकर रह गयी है।

(2.10) अभिवादन


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"जय महेश" यह माहेश्वरीयों में प्रयुक्त होनेवाला अभिवादन है।

(3) माहेश्वरी जीवन दर्शन


माहेश्वरी समाज में महेश परिवार की महिमा मुख्य रूप से पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। यह महेश परिवार तथा मिन्दर (मंदिर) पर आधारित समाज (समाज-व्यवस्था) है। 'महेश परिवार' में आस्था और मानव मात्र के कल्याण की कामना (सर्वे भवन्तु सुखिनः) माहेश्वरी धर्म का प्रमुख सिद्धान्त हैं। माहेश्वरी समाज सत्य, प्रेम और न्याय के पथ पर चलता है। कर्म करना, बांट कर खाना और प्रभु का नाम जाप करना इसके आधार हैं। माहेश्वरी अपने धर्माचरण का पूरी निष्ठा के साथ पालन करते है तथा वह जिस स्थान/प्रदेश में रहते है वहां की स्थानिक संस्कृति का पूरा आदर-सन्मान करते है, इस बात का ध्यान रखते है; यह माहेश्वरी समाज की विशेष बात है। आज तकरीबन भारत के हर राज्य, हर शहर में माहेश्वरीजन बसे हुए है और अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते है।

जीवन-दर्शन को अधिक स्पष्ट करते हुए गुरुओं ने जीवन के मुख्य सात सुख को परिभाषित किया। ना केवल सात सुखों को परिभाषित किया अपितु उनके प्राधान्यक्रम को भी बताकर बेहतर जीवन का मार्गदर्शन किया। मात्र दो श्लोकों में सम्पूर्ण जीवन का मार्गदर्शन करने का बड़ा ही अद्भुत कार्य गुरुओं ने किया जो शाश्वत है। इन दो श्लोकों के माध्यम से बताया गए जीवन-दर्शन की महत्ता और प्रासंगिकता आज के समय में पहले से कहीं अधिक है।

।। सप्त सुख ।।
पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर मे हो माया l
तीजा सुख सुलक्षणा नारी, चौथा सुख संतान आज्ञाकारी ।। १ ।।
पांचवा सुख स्वदेश बासा, छटा सुख सपरिवारनिवासा l
सातवा सुख संतोषी मन, ऐसा हो तो 'सफल' है जीवन ।। २ ।।

 

(9) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बाद से अबतक का संक्षिप्त इतिहास


ऋषियों के शाप से निष्प्राण हुए खण्डेलपुर राज्य के 72 क्षत्रिय उमरावों को युधिष्ठिर संवत 9, जेष्ठ शुक्ल नवमी के दिन (3133 ईसा पूर्व में) भगवान महेशजी और माता पार्वती की कृपा (वरदान) से शापमुक्त होकर नया जीवन मिला और एक नए वंश "माहेश्वरी" वंश की उत्पत्ति हुई। इसी घटना को 'माहेश्वरी वंशोत्पत्ति' के नाम से जाना जाता है। आसान भाषा में समझने के लिए इसे "माहेश्वरी समाज की स्थापना हुई" ऐसा कह सकते है। माहेश्वरी उत्पत्ति के परिणामस्वरूप जो 72 क्षत्रिय उमराव थे उनके माहेश्वरी बनने के साथ ही उनका पुराना वंश और क्षत्रिय वर्ण छूट गया, समाप्त हो गया और भगवान महेशजी की आज्ञा से नया "माहेश्वरी" वंश प्रारम्भ हुवा तथा वे वाणिज्य कर्म के लिए प्रवृत हुए। माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के पुरे वृतांत को जानकर मत्स्यनरेश ने खण्डेलपुर राज्य को मत्स्य में समाहित कर लिया। मत्स्यराज ने माहेश्वरीयों को आश्वत किया की उन्हें पूरा सहयोग प्राप्त रहेगा। माहेश्वरीयों ने अपने व्यापारकौशल, ईमानदारी और मेहनत के बलपर ना केवल मत्स्य में बल्कि कुरु, पांचाल, शूरसेन आदि देशों में व्यापार करके अपने लिए सम्मान और गौरव का स्थान प्राप्त किया।

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति (माहेश्वरी समाज की स्थापना) के साथ ही माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने "पराशर, सारस्‍वत, ग्‍वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच" इन छः (6) ऋषियों (गुरुओं) को सौपा। अपने दायित्व का सुचारु निर्वहन करने हेतु, माहेश्वरी वंश (समाज) को, समाजव्यवस्था को मजबूत, प्रगतिशील और मर्यादासम्पन्न (अनुशासित) बनाने के लिए माहेश्वरी गुरुओं ने, गुरुतत्व के रूप में "गुरुपीठ" की स्थापना की। भगवान महेशजी द्वारा सौपे गए दायित्व का निर्वहन करने के लिए गुरुओं ने एक व्यवस्था एवं प्रबंधन के निर्माण का ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया जिनमें गुरुपीठ की स्थापना प्रमुख कार्य है। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) है। माहेश्वरीयों की विशिष्ट पहचान हेतु समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) का और ध्वज का सृजन किया। ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) को "दिव्य ध्वज" कहा गया। दिव्यध्वज माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी। गुरुपीठ माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक मार्गदर्शन केन्द्र माना जाता था। माहेश्वरीयों से सम्बन्धीत किसी भी आध्यात्मिक-सामाजिक विवाद पर गुरुपीठ द्वारा लिया/किया गया निर्णय अंतिम माना जाता था।

माहेश्वरी समाज के गुरुपीठ (माहेश्वरी गुरुपीठ) के माध्यम से माहेश्वरी गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान एवं भक्ति करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। गुरुओं ने कहा कि सदाचारपूर्वक परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरुओं के कहा की- ऐसा कोई वाणिज्य व्यापार नहीं है, जो माहेश्वरी समाज की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रतिकूल माना जाता हो। गुरुओं ने तो यहाँ तक कहा कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। गुरुपीठ द्वारा समाज में प्रारंभ की गई ‘अनकोट’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल थी। गुरुओं ने नित्य प्रार्थना (पञ्चनमस्कार महामन्त्र), वंदना (महेश वंदना), नित्य अनकोट (अन्नदान), करसेवा, गो-ग्रास आदि नियम बनाकर समाज के लिए बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया।

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय जो 72 उमराव थे उनके नये नाम पर एक-एक खाप बनी जो 72 खाप कहलाई। माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति एवं गुरुपीठ की स्थापना के पश्चात अगले कुछ समय में माहेश्वरी गुरुपीठ ने ओस्वाल जैन समाज से चार परिवारों को माहेश्वरी समाज में शामिल कर लिया जिससे "मंत्री, पोरवाल, देवपुरा और नौलखा" इन चार खापों का समावेश हुवा, जिससे माहेश्वरी खापों की संख्या 76 हुई। कुछ समयोपरांत अन्य एक समाज के एक परिवार को माहेश्वरीयों में मिला लिया और 77 वी खांप टावरी (तावरी) बनाई गयी। इस प्रकार आज माहेश्वरी समाज में कुल 77 खांपे है। आगे चलकर काम के कारण या गाव व बुजुर्गो के नाम से एक-एक खाप में कई नख (उपखांप) बन गई। वर्तमान समय में उपखांपों की संख्या 989 से भी अधिक है। लेकिन यह सभी खांपें और उनके नख (उपखांपे) मूलतः माहेश्वरी ही होने के कारन इन सबमें परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार है (*कुछ समयोपरांत सभी मूल 77 खांपों को 7 गोत्रों में बांटा गया। आगे चलकर गोत्रों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है)। माहेश्वरी समाज की खाप और गोत्र व्यवस्थाएं अति प्राचीन हैं और आज भी इनका पालन हो रहा है। माहेश्वरी समाज में एक ही गोत्र के लडके और लड़की में विवाह नहीं होता है। समान गोत्र में विवाह-सम्बन्ध निषिद्ध है। माहेश्वरीयों की सामाजिक सरंचना बेजोड़ है। माहेश्वरीयों ने कुछ सर्वमान्य सामाजिक मापदण्ड स्वयं ही निर्धारित कर रखे हैं और इनके सामाजिक मूल्यों का निरंतर संस्तरण होता आ रहा है। 

फिर मध्यकाल में बहुतांश खापों के माहेश्वरी डीडवाना (वर्तमान समय में डीडवाना राजस्थान के नागौर जिले में आता है) में आकर बस गए। भारत के मध्यकालीन समय में डीडवाना शहर में बनी हुई व्यापारियों (माहेश्वरीयों) की हवेलियां आज भी इनकी भव्यता, इनके आकर्षक व कलात्मक नक्काशीदार पत्थर और कलात्मकता के कारन अनायास ही लोगों का ध्यान खीच लेती है। हजारों सालों का इतिहास अपने अन्दर समेटे डीडवाना शहर के परकोटे में बनी यह हवेलियां कभी शान, वैभवता व भव्यता का प्रतीक बनी हुई थीं। लेकिन बलदते दौर की अनदेखी और उपेक्षा के चलते यह हवेलियां अब वीरान हो चली हैं।

कालोपरांत 20 खाप के माहेश्वरी परिवार डीडवाना से धकगड़ (गुजरात) में जाकर बस गए। वहा का राजा दयालु, प्रजापालक और व्यापारियों के प्रति सम्मान रखने वाला था। इन्ही गुणों से प्रभावित हो कर और 12 खापो के माहेश्वरी भी वहा आकर बस गए। इस प्रकार 32 खापो के माहेश्वरी धकगड़ (गुजरात) में बस गए और व्यापार और कृषि करने लगे। तो वे धाकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे। समय व परिस्थिति के वशीभूत होकर धकगड़ के कुछ माहेश्वरियो को धकगड़ भी छोडना पड़ा और वे मध्य भारत में आष्टा के पास अवन्तिपुर बडोदिया ग्राम में विक्रम संवत 1200 (ई.स. 1143) के आस-पास आकर बस गए। वहाँ उनके द्वारा निर्मित भगवान महेशजी का मंदिर जिसका निर्माण विक्रम संवत 1262 (ई.स. 1205) में हुआ जो आज भी विद्यमान है एवं अतीत की यादो को ताज़ा करता है।

15 खापो के माहेश्वरी परिवार ग्राम काकरोली राजस्थान में बस गए तो वे काकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे (एक विशेष घटना के कारन इन्होने घर त्याग करने के पहले संकल्प किया की वे हाथी दांत का चुडा व मोतीचूर की चुन्धरी काम में नहीं लावेंगे अतः आज भी काकड़ वाल्या माहेश्वरी मंगल कारज (विवाह) में इन चीजो का व्यवहार नहीं करते है)। स्थान-कालपरत्वे माहेश्वरी डिडू माहेश्‍वरी, मेडतवाल माहेश्‍वरी, पौकर माहेश्‍वरी, धाकड माहेश्‍वरी, थारी माहेश्वरी, खंडेलवाल माहेश्‍वरी, टुंकावाले माहेश्‍वरी आदि नामों से पहचाने जाने लगे, लेकिन मूलतः सभी एक ही होने के कारन इन सभी माहेश्वरीयों में परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार है। पुनः माहेश्वरी मध्य भारत और भारत के कई स्थानों पर जाकर व्यवसाय करने लगे।

सामाजिक संस्तरण के साथ ही माहेश्वरीयों ने अपने व्यापार-कौशल, मेहनत, ईमानदारी से वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में अपना परचम लहराया। माहेश्वरी लोग जहाँ भी, जिस प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा सीखली, वहाँ के लोगों में घुलमिल गये, उनके सुख-दुःख में शामिल हुए। माहेश्वरीयों के सिद्धांत- "कमाना है दान-धर्म करने के लिए" के कारन वाणिज्य-व्यापार में हुई कमाई को माहेश्वरी समाज में मुनाफा नहीं बल्कि 'लाभ' कहा जाता है। वाणिज्य-व्यापार करते हुए 'सवाई' से ज्यादा लाभ नहीं कमाने का माहेश्वरी सिद्धांत रहा है। माहेश्वरीयों का यह सिद्धांत वाणिज्य-व्यापार में माहेश्वरीयों की शुचिता/सदाचरण को दर्शाता है जिसने माहेश्वरीयों को सबसे अलग, सबसे विशेष स्थान प्राप्त है। "सदाचार, दानशूरता, उदारता, औरों की भलाई के लिए तत्पर रहना" जैसे गुणों के कारण ही माहेश्वरी समाज ने पैसा भी कमाया और सर्वत्र चिकित्सालय, शिक्षालय, कुँए, बावड़ी, प्याऊ, धर्मशाला, अनाथालय, गौशालाओं का अम्बार लगा दिया जो इस समाज की देश भर में अपनी अलग पहचान बनाती है। विरासत में मिले अपने इन्ही गुणों के कारन आज पूरी दुनिया में ‘माहेश्वरी’ की एक अलग और गौरवमय पहचान है।

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के बाद से आगे अबतक मुख्य रूपसे क्या क्या हुवा? भारत की आजादी में, भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक यात्रा में माहेश्वरीयों का, माहेश्वरी समाज का क्या योगदान रहा है? माहेश्वरी वंशोत्पत्ति से आगे अबतक का माहेश्वरी इतिहास क्या है? इसे अधिक विस्तार से जानने के लिए कृपया इस link को देखें > माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के बाद से अबतक का संक्षिप्त इतिहास


प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक- "माहेश्वरी उत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार